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मंगलवार, फ़रवरी 18, 2020

सुपर बुजुर्ग - एक मौलिक कहानी - भाग-1

सुपर बुजुर्ग 

मौलिक रचना | Maulik Rachna प्रस्तुत करता है सुपर बुजुर्ग - एक मौलिक कहानी।

भाग-1

अध्याय 1 - "एक सुपर लक्ष्य" 


सिटी न्यूज़ चैनल के स्टूडियो में बैठे न्यूज एंकर दीपक ने रिपोर्टर स्वेता शर्मा से पूछा, "स्वेता, सेंट्रल जेल के बाहर किस तरह का माहौल है?"

स्वेता बोली, "सेंट्रल जेल के बाहर बुजुर्गों और युवाओं की भीड़ बढ़ती ही जा रही है। सभी लोग अपने प्यारे "सुपर बुजुर्ग" का जेल से बाहर आने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। हम अपने दर्शकों को बता दें कि विवेक जैन वह शख्स हैं जिन्होंने आज से तीन दिन पहले निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर अपना नामांकन भरा था और उसके अगले ही दिन उन्हें ठगी, धोखाधड़ी, जालसाजी आदि विभिन्न आरोपों के तहत नाटकीय ढंग से गिरफ्तार कर लिया गया था।

ऐसे आरोप लगे थे कि उन्होंने डीडीए की सार्वजनिक पार्क, जिसका नाम सत्य पार्क है, की जमीन के एक हिस्से पर अनधिकृत रूप से कब्जा किया, वहां अवैध रूप से पुस्तकालय बनवाया तथा उसी पार्क पर गैर कानूनी तौर पर अपना NGO "बुजुर्ग क्लब" चलाकर हजारों बुजुर्गों से करोड़ों रुपए ठगे।  ये भी आरोप लगा कि उन्होंने एक बुजुर्ग महिला का घर हड़पने की भी कोशिश की।

उनके विरुद्ध एक ही दिन में कुल तीन FIR दर्ज हुए और उन्हें कोर्ट के आदेश पर दो दिन की पुलिस रिमांड पर भेज दिया गया था। उसके बाद से ही शहर के बुजुर्गों में गुस्सा फूट पड़ा, जिसके बाद वे लोग उसी सत्य पार्क में इकट्ठा होने लगे, जहां पर विवेक द्वारा गैर कानूनी तौर पर "बुजुर्ग क्लब" NGO चलाने का आरोप लगा था। हजारों की संख्या में बुजुर्ग, जिनमें बुजुर्ग महिलाएं भी शामिल थीं, आमरण अनशन पर बैठ गए। साथ ही युवा वर्ग भी इस आंदोलन में शामिल हो गया और उन्होंने लगातार तीन दिनों तक सुबह से लेकर शाम तक प्रशाशन के विरुद्ध जुलूस और रैलियां निकलीं। सबका यही कहना था कि सारे के सारे आरोप झूठे और बेबुनियाद हैं और विवेक जैन को साजिश के तहत फंसाया गया है जिसमें SHO और स्थानीय विधायक जीवन सेठ का हाथ है।

बुजुर्गों की तरफ से डाली गयी याचिका पर सेशंस कोर्ट ने SHO को तलब किया था ,जिसने कोर्ट में आकर कहा था कि आरोपी के खिलाफ पक्के सबूत हैं। इस पर सेशंस कोर्ट ने बुजुर्गों की याचिका खारिज कर दी थी। तब बुजुर्गों के वकील एस. के. नारंग ने उच्च न्यायलय में FIR Quash (रद्द) करने की याचिका दी जिसके साथ उन्होंने 700 बुजुर्गों के शपथ पत्र भी माननीय अदालत में पेश किए जिनमें बुजुर्गों ने बताया था कि किस तरह विवेक ने एक मसीहा की तरह उनके दुःखों को दूर किया है। इसके अलावा वकील ने न्यायलय को वे दस्तावेज भी दिखाए जिनसे पता चलता था कि डीडीए ने ही सार्वजनिक पार्क में पुस्तकालय खोलने की इजाजत दी थी क्योंकि उस जगह की जमीन बंजर थी। इसके अलावा बुजुर्गों के वकील ने अदालत को यह भी बताया कि खुद विधायक जीवन सेठ ने "सबका पुस्तकालय" का उद्घाटन किया था।" 

श्वेता शर्मा ने आगे बताया, "माननीय जज साहब ने अपने फैसले में जो कहा, उसका हिंदी अनुवाद मैं आपको पढ़कर सुनाती हूं "मैंने दोनों पक्षों की दलीलों को सुना है तथा दिए गए दस्तावेज भी देखे हैं। साथ ही पार्क में चल रहे बुजुर्गों के भूख-हड़ताल से भी मैं अनभिज्ञ नहीं हूं। सबकुछ देख कर मुझे लगता है कि विवेक कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि यह तो कोई "सुपर बुजुर्ग" मालूम पड़ते हैं, जिन्होंने इतने सारे बुजुर्गों की न सिर्फ मदद की बल्कि कई बुजुर्गों को उन्होंने फिर से जीना सिखाया, उनमें जीवन के प्रति नया जोश भरा। इसके अलावा विवेक ने भटके हुए युवाओं को भी सही रास्ता दिखाया है। आजकल जहां बहुत सारे NGO धोखाधड़ी करके लोगों को ठगने के काम में लगे हुए हैं, वहीं इस शख्स ने अपनी सारी जमा-पूंजी तक को एक बुजुर्ग की जान बचाने में लगा दी थी। इसके अलावा जितने आरोप लगाए गए हैं वे पूरी तरह से निराधार मालूम पड़ते हैं। इसलिए कोर्ट यह आदेश देती है कि विवेक जैन को तुरंत जमानत पर रिहा किया जाए, SHO को छुट्टी पर भेजा जाए और कमिश्नर पूरे मामले की रिपोर्ट अगली तारीख में खुद कोर्ट में आकर पेश करें।

इसके बाद से ही बुजुर्गों और  युवाओं में जश्न का माहौल है और वे सेंट्रल जेल के बाहर इकट्ठा हो रहे हैं।  बताया जा रहे है कि अब किसी भी वक्त विवेक जैन को छोड़ा जा सकता है। अब जब कि मतदान में सिर्फ दो दिन बाकी हैं, तो ये देखना दिलचस्प होगा कि विधायक पद के लिए किसकी जीत होती है।"

सिटी न्यूज़ की इस पूरी खबर को मैं सेंट्रल जेल के बाहर लाइव प्रस्तुत होते देख रहा था। तभी रिपोर्टर श्वेता शर्मा ने मुझसे सवाल पूछ लिया, "विजय कपूर जी, आप तो विवेक के बहुत अच्छे दोस्त हैं। क्या आप हमारे दर्शकों को बताएंगे कि आप के दोस्त सुपर बुजुर्ग कैसे बनें ?"

अचानक पूछे गए इस सवाल का मैं ठीक से कोई जवाब नहीं दे पाया। "जी, वह मैं कहना चाहता हूं" मैंने ऐसा ही कुछ कहा होगा, तभी विवेक के बाहर आने की खबर आई और सभी लोग उत्साह से नारे लगाने लगे, "सुपर बुजुर्ग जिंदाबाद, सुपर बुजुर्ग जिंदाबाद" और रिपोर्टर श्वेता ने विवेक के जेल से बाहर आने की खबर को कवर करना शुरू कर दिया।

रिपोर्टर स्वेता के सवाल से मेरे दिमाग मैं विचारों का सैलाब भी था और मस्तिष्क सुन्न भी था। मैंने किसी तरह खुद को संभाला और देखा कि विवेक भीड़ को हाथ जोड़कर धन्यवाद कर रहा था लेकिन वह बहुत थका हुआ था। मैं उससे जाकर मिला और उसके परिवार की गाड़ी में उसे घर तक छोड़ा, उसे हिम्मत बंधाई और कल मिलने आऊंगा का वादा करके मैं अपने घर आ गया। 

लेकिन उस रिपोर्टर का सवाल मुझे रह-रह कर याद आ जाता। समझ में नहीं आ रहा था कि यह सवाल अब मुझसे क्या चाहता है? मैंने टीवी लगाकर अपना ध्यान दूसरी ओर करने की कोशिश की, पर गलती से न्यूज चैनल लग गया जिसमें विवेक की खबर आ रही थी। रिपोर्टर श्वेता को देखकर मेरे दिमाग में फिर से वही सवाल गूंजने लगा। मैंने टीवी बंद कर दिया।

जैसे-तैसे मैं रात का खाना खा कर अपने कमरे में सोने चला गया, पर मुझे नींद ही नहीं आ रही थी।  मैं करवट बदलता रहा और जिद से सोने की कोशिश करने लगा। पता नहीं कब नींद आ गयी मगर सुबह करीब साढ़े चार बजे उठा तो एक विचार के साथ उठा। मुझे रिपोर्टर श्वेता के सवाल ने एक मकसद दे दिया है कि मैं सभी लोगों तक अपने दोस्त विवेक की सुपर बुजुर्ग बनने की कहानी पहुंचाऊं। मैंने अपने मोबाइल फोन तथा मेमोरी कार्ड को फॉरमेट कर दिया है। अब मोबाइल में 64 जीबी इंटरनल मेमोरी तथा 128 जीबी मेमोरी कार्ड की जगह बन गई है। मेरे पास एक और 128 जीबी मेमोरी कार्ड पड़ा हुआ है जो जरूरत पड़ने पर काम आएगा। मैंने निश्चय किया है कि मैं घर के बाकी सदस्यों के उठने से पहले ही अपने मोबाइल पर विवेक के बारे में वह सारी बातें रिकॉर्ड कर लूंगा, जो मुझे ध्यान में आती हैं। बाद में मैं सारी बातों को सिलसिलेवार लिखूंगा तथा "सुपर बुजुर्ग" की कहानी तैयार करने की कोशिश करूंगा।  बीच में मुझे प्यास न लगे, इसके लिए मैंने फ्रिज से एक बोतल ठंडा पानी भी अपने साथ रख लिया है ताकि अपने संकल्प को मैं बिना रुकावट पूरा कर सकूं।

अध्याय 2 - "सुपर बुजुर्ग कभी साधारण बुजुर्ग थे!"


विवेक जैन ने मुझे बताया था कि उनके पिता आदर्श जैन, स्वामी विवेकानंद जी को बहुत मानते थे तथा उनके नाम पर ही विवेक का नाम रखा गया था।

लगभग चार साल पहले विवेक बैंक मैनेजर की पोस्ट से रिटायर हुआ था। विवेक के माता-पिता और पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है।  उसके परिवार में उसका बेटा मनीष जैन, बहू देवयानी और प्यारा पोता आदर्श है जिन्हें सब प्यार से बबलू बुलाते हैं। मनीष बहुत बड़ी कंपनी में मैनेजर की पोस्ट पर है और देवयानी भी घर में ही कंप्यूटर से मैगजीन्स, अखबारों और हिंदी वेबसाइट्स के लिए लेख और कविताएं लिखती हैं।

रिटायरमेंट के बाद विवेक एक सामान्य दादा जी वाले जीवन से बहुत खुश था। सुबह बबलू को घर के पास उसके स्कूल तक छोड़ कर आना, फिर गर्म चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ना, पौधों को पानी देना और फिर सत्य पार्क की सैर को निकल लेना। फिर आते वक्त घर के लिए दूध व सब्जी-फल ले आना। नहा-धोकर मंदिर जाना, फिर आकर नाश्ते के बाद किताब पढ़ना और दोपहर को बबलू को स्कूल से वापस लाना। खाना खाकर बबलू के साथ खेलना, शाम को फिर से पार्क का एक चक्कर लगाना और घर आकर किताब पढ़ते हुए बबलू को होम-वर्क कराना। रात को खबरें सुनना और परिवार के संग बैठकर सीरियल देखते हुए खाना खाना और ठीक ग्यारह बजे तक सो जाना। बस यूं ही हंसी-खुशी दिन बीत रहे थे।

मैं पहली बार विवेक से सत्य पार्क में ही मिला था। बस टहलते-टहलते नमस्ते और दुआ-सलाम हो जाया करती। तब तक ज्यादा पहचान नहीं थी।

एक दिन बबलू को स्कूल से लेकर आते वक्त विवेक के साथ एक घटना घटी। उसने देखा 19-20 साल के 2 लड़के वहां लड़कियों को छेड़ रहे थे। विवेक को अच्छा नहीं लगा। उसने उन लड़कों को रोका। फिर क्या था, दोनों बदतमीजी पर उतर आए। विवेक के साथ धक्का-मुक्की करने लगे। मजाक उड़ाने लगे। विवेक के लिए यह एक सदमा था। ऐसा उसके साथ पहले कभी नहीं हुआ था। उसने ऐसे आवारा किस्म के लोगों से उलझने के बजाए वहां से निकल लेना ठीक समझा। मगर अब विवेक जब भी बबलू को स्कूल से लेने के लिए जाता तो यह गुंडे किस्म के युवक उसे घेर लेते और ताने कस्ते, मजाक उड़ाते। विवेक से बर्दास्त नहीं हो रहा था। बबलू ने इस बात का जिक्र घर में किया तो मनीष और देवयानी परेशान गए।

विवेक ने उन्हें बताया, "बबलू की फिक्र के कारण मैं उन बदमाशों की बदतमीजियों को नजरअंदाज कर रहा हूं वरना इतना अपमान मैं बर्दास्त नहीं कर पा रहा हूं। मैंने एक बैंक मैनेजर के तौर पर बहुत सम्मानजनक जिंदगी जी है।  सभी लोग मुझसे बहुत आदर से मिलते थे। मुझे ऐसे अपमान सहने की आदत नहीं है और न ही जरूरत है।"

इस पर देवयानी ने कहा, "बाबूजी आप ऐसा कीजिए कि पार्क के दूसरी वाले रास्ते से कार में बबलू को स्कूल छोड़ दिया कीजिए। वह रास्ता लम्बा जरूर है, लेकिन उन गुंडों से छुटकारा मिल जाएगा।"

जवाब ने विवेक ने कहा, "क्या बात कर रही हो देवयानी? तुम चाहती हो कि मैं इन कल के छोकरों से डर जाऊं? अरे ऐसे तो इन लोगों के हौसले और बढ़ जाएंगें। मुझे नहीं तो और किसी को परेशान करेंगे।"

मनीष बोला, "बाबू जी, मुझे पता है की आप किसी से नहीं डरते पर मुझे देवयानी की बात ठीक लग रही है। ऐसे सड़कछाप गुंडों से उलझकर कुछ भी नहीं मिलेगा। वे सुधरने वाले तो हैं नहीं। आप कम से कम बबलू का तो सोचिए? कहीं उसे चोट पहुंचा देंगे तो क्या होगा? मुझे लगता है कि अगर आप एक-दो महीने तक रास्ता बदल लेते हैं तो यह गुंडे भी तब तक सब भूल-भाल जाएंगे। तब आप फिर उसी रास्ते पर आ-जा सकेंगे।"

बबलू के कारण विवेक भी सहमत हो गया और वह कार में, लम्बे रास्ते से, बबलू को स्कूल छोड़ने व लेने जाने लग गया।

अध्याय 3 - संकट में "दोस्ती"


कुछ दिन तो सब ठीक चलता रहा, मगर एक दिन बबलू को स्कूल से लेकर आते वक्त विवेक को फिर से वही लड़के दिख गए जो फिर किसी लड़की से बदतमीजी कर रहे थे। अचानक उनमें से एक लड़के ने लड़की का हाथ पकड़ लिया। लड़की चिल्लाने लगी। यह देखकर विवेक का सब्र टूट गया। विवेक कार से उतर कर आगे बढ़ा और उस गुंडे के मुंह पर एक तमाचा जड़ दिया। अब दोनों गुंडों ने विवेक को पकड़ लिया और उसे मारने लगे।

वहां इकट्ठा हुए लोग सिर्फ तमाशा देख रहे थे, मगर विवेक भी बहुत हिम्मतवाला था, उसने दोनों गुंडों को कॉलर से कसकर पकड़ लिया। अब उन लड़कों के होश उड़ने शुरू हो गए, आखिर इससे पहले उन्हें कभी विरोध का सामना जो नहीं करना पड़ा था। साथ ही, भीड़ भी अब बढ़ती जा रही थी और उनमें भी अब विरोध और गुस्सा आता जा रहा था। इस स्थिति में दोनों गुंडों ने पूरी जान लगाकर विवेक को जोर से धक्का मारा, जिस कारण विवेक गिर पड़ा और उसके हाथ की कोहनी पत्थर से टकरा गई। मौका देखकर दोनों बदमाश वहां से भाग खड़े हुए।

विवेक जमीन पर ही बैठा हुआ था और हाथ नहीं हिला पा रहा था। मैं वहीं से गुजर रहा था। मैंने तब विवेक को उठाया। बबलू सहमा हुआ एक तरफ खड़ा था। मैंने विवेक से नम्बर लेकर उसके घर पर फोन किया और विवेक को उसकी कार में पास के अस्पताल में ले गया। वहां डॉक्टर ने बताया कि  विवेक के हाथ में फ्रैक्चर आ गया है तथा उसके हाथ में प्लास्टर चढ़ाया गया। तब तक मनीष भी वहां आ गया था। इसके बाद विवेक ने मनीष और मुझसे कहा कि चलकर पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखाते हैं।

मनीष बोला, "बाबूजी इतना सब कुछ घट गया और पुलिस का कहीं कोई अता-पता नहीं था तो ऐसे में थाने में जाने का कोई फायदा नहीं है।"

मगर विवेक की जिद्द पर उसे चलना पड़ा। मैं भी उनके साथ गया। बबलू को कार में बैठा कर, हम थाने गए। मगर थाने में जब रिपोर्ट दर्ज करने की बात आई तो SHO बड़ी बदतमीजी से बोला, "इब इतना सब कुछ हुआ और मुसीबत क्यों मोल लेत्ते हो। तू कह रया से कि लड़की को छेड़डा तो बत्ता के लड़की कहां है ?" 

विवेक चौंका और बोला, "हो सकता है कि नाम खराब न हो इसलिए वह वहां से चली गयी होगी।"

SHO बोला, "तो तू क्यों चौधरी बने है? अच्छा तमने बाइक नंबर नोट करी के?"

विवेक बोला, "मुझे चोट लग गयी थी इसलिए मैं तो देख नहीं पाया लेकिन भीड़ में से किसी न किसी ने जरूर देखा होगा।"

खेर रिपोर्ट तो कोई दर्ज नहीं हुई और हम ऐसे ही घर आ गए। घर गए तो देवयानी रो रही थी। उसने बबलू को गले से लगा लिया और बोली, "बाबू जी आप ठीक तो है न? आपको ज्यादा चोट तो नहीं लगी? क्या जरूरत थी आपको उन गुंडों से उलझने की?"

विवेक बोला, "मैं ठीक हूं। बेटी ऐसा है कि वे गुंडे लोग एक लड़की से बदतमीजी कर रहे थे तो मेरा सब्र टूट गया।"

देवयानी बोली, "वहां और लोग भी तो होंगे। आप को ही लड़ना जरूरी था? बेकार में आप को चोट लग गई। और भगवान का शुक्र है कि बबलू को कोई नुकसान नहीं पहुंचा।"

विवेक बोला, "बेटी वहां लोग कहां थे! लोग होते तो वह बदमाश ऐसा कुछ करने की हिम्मत करते? वहां तो सिर्फ मुर्दों की भीड़ थी, लेकिन मैं जिन्दा था!"

देवयानी अब भी रो रही थी। तब विवेक बोला, "अच्छा एक बात बता देवयानी तू क्या चाहती है कि बबलू अपने दादा जी को कायर समझें? अगर मैं कुछ नहीं करता तो बबलू क्या सोचता? बबलू सिर्फ चार साल का है पर तू मान या न मान, मगर यह सब देखता है, समझता है।"

तभी बबलू बोल पड़ा, "दादा जी हीरो हैं। उन्होंने गुंडों की पिटाई की।" इस पर हम सभी हंस पड़े।

विवेक बोला, "अरे देवयानी, अब बातें ही करती रहेगी या कुछ चाय वगैरह भी पिलाएगी। देख तो हमारे साथ विवेक कपूर जी आए हुए हैं।  यह ही मुझे अस्पताल ले गए थे।"

देवयानी बोली, "ओह, मुझे तो ध्यान ही नहीं रहा। धन्यवाद अंकल जी, जो आप सही समय पर बाबू जी की मदद करने पहुंच गए। आप लोग बैठिए, मैं बस दो मिनट में गर्मागर्म चाय-नास्ता लाती हूं।" उसी चाय के साथ ही विवेक और मेरी गहरी दोस्ती हो गई।"

अध्याय 4 - "पुस्तकालय - एक सफल प्रयोग"


तीन-चार दिन के आराम के बाद जब विवेक पार्क में टहलने आया तो वहां जितने बुजुर्ग थे, उन्होंने विवेक का तालियां बजाकर स्वागत किया और उसकी बहादूरी के लिए बधाई दी। दिनचर्या फिर उसी तरह चलने लगी।  फर्क यह आया कि पार्क में दोस्तों की महफिल लगने लगी। विवेक, मैं, खन्ना, पुरोहित, मल्होत्रा जी, वर्मा वगैरह जब भी मिलते तो बातों-बातों में कब समय निकलता, पता ही नहीं चलता था। राजनीति, धर्म, क्रिकेट, महंगाई, फिल्म आदि जिस भी विषय पर जब चर्चा शुरू होती, तो घंटों तक बातें चलती। दो महीने बाद विवेक का प्लास्टर भी उतर गया।

इसी तरह एक दिन जब हम सब पार्क में इकट्ठा हुए तो मल्होत्रा जी मजाक में  बोले, "दोस्तों, इस पार्क में एक छोटी-सा पुस्तकालय हो तो कितना अच्छा हो! सब बैठकर अखबार व पुस्तकें पढ़ेंगे और उन पर चर्चा कर सकेंगे। चाहे तो अपनी पसंद की पुस्तकों को घर भी ले जा सकेंगे।"

सभी को यह विचार बहुत बढ़िया लगा। विवेक बोला, "यह तो बहुत बढ़िया विचार है। जो लोग पार्क में आते हैं उन्हें भी अखबार और पुस्तकें पढ़ने को मिला करेंगी। हम भी पुस्तकालय के लिए कुछ धार्मिक पुस्तकें ले आएंगे तथा उन्हें पढ़कर हम उस पर चर्चा करके कुछ सीखने-समझने की कोशिश करेंगें। इससे हम सब जब बैठ कर बातें किया करेंगे तो बड़ी सार्थक बातें हुआ करेंगी, समय भी अच्छा कटेगा और बहुत कुछ नया जानने को मिलेगा।" विवेक आगे बोला, "मुझे तो यह विचार बहुत ही बढ़िया लगा है, मगर क्या ऐसा संभव है?"

खन्ना जी बोले, "अगर संभव नहीं है तो संभव कर देंगे। और कुछ नहीं तो घर से अखबार, किताबें लाकर उसे ही पढ़ लिया करेंगे।"

इस पर वर्मा जी बोले, "परन्तु अगर हम घर से पुस्तकें लाया करेंगे, तो एक समय के बाद उसमें विविधता नहीं रहेगी।"

पुस्तकालय का विचार सबको बहुत पसंद आया था। लेकिन समस्या थी कि पुस्तकालय बने कैसे ? हालांकि सत्य पार्क में सड़क के पास एक कोना ऐसा था जो पूरी तरह से बंजर थी, मगर किसी को भी नहीं पता था कि सार्वजानिक पार्क में पुस्तकालय बनाने की इजाजत है भी कि नहीं?

इस पर मल्होत्रा जी ने सुझाव दिया, "चलो अपने क्षेत्र के विधायक जीवन सेठ से बात  करके देखते हैं। वे सज्जन व्यक्ति हैं। उनसे बात करेंगे तो कुछ न कुछ हल जरूर निकल सकता है।"

मल्होत्रा जी के नेतृत्व में हम सब वहां गए और जीवन सेठ से मिले। उन्होंने कहा, "यह विचार तो अच्छा है, पर मैं डीडीए से एक बार बात कर के देख लेता हूं। मैं आपको दो-तीन दिन में इस बारे में बताता हूं।"

दो दिन बाद हम फिर जीवन सेठ जी से मिलने गए। जीवन सेठ ने कहा, "मैंने डीडीए के अधिकारियों से बात की है। उन्होंने मुझे बताया कि आज तक तो ऐसा कोई प्रस्ताव उनके पास आया नहीं है, मगर इस पर विचार किया जा सकता है। इसलिए बात उच्च अधिकारीयों के समक्ष रख दी गयी है। अगर वे अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी कर देते हैं तो पुस्तकालय बन सकता है।"

लगभग 10 दिन बाद जीवन सेठ ने मल्होत्रा जी को फोन करके बुलाया। हम सब जब उनके पास गए तो जीवन सेठ ने कहा, "आप सब के लिए खुशखबरी है। डीडीए के अधिकारियों ने सत्य पार्क का निरिक्षण किया था और उन्होंने पाया कि पार्क का एक कोना पूरी तरह से बंजर है। इसलिए उन्होंने प्रयोग के तौर पर पुस्तकालय बनाने की इजाजत दे दी है।" जीवन सेठ आगे बोले, "साथ ही आप के लिए एक और अच्छी खबर है। मैंने तय किया है कि मैं अपने विधायक फंड से इस पुस्तकालय को बनवा कर दूंगा।"

उनकी बात सुनकर हम सभी ख़ुशी से झूम उठे। मल्होत्रा जी के साथ हम सब ने भी "जीवन सेठ जिंदाबाद" के खूब नारे लगाए उनका खूब धन्यवाद किया।

अध्याय 5 - "सबका पुस्तकालय" 


लगभग दो महीने बाद पुस्तकालय बनकर तैयार हो गया। जीवन सेठ ने आकर खुद पुस्तकालय का उद्घाटन किया। हमने भी उनके नाम से वहां मार्बल पत्थर लगवाया। पुस्तकालय का नाम "सबका पुस्तकालय" रखा गया। अब समस्या यह थी कि पुस्तकें कहां से इकट्ठा की जाए। सब ने अपने घरों से जो किताबें इस्तेमाल में नहीं थीं, उन्हें इकट्ठा किया और पुस्तकालय में जमा कराया। साथ ही ये भी तय किया कि घर में आने वाली अखबार को भी 11 बजे तक पुस्तकालय में जमा करा दिया करेंगे। मासिक पत्रिकाओं को भी पुस्तकालय में दे दिया जाएगा।

मगर पुस्तकें अभी भी बहुत कम थीं। मल्होत्रा जी ने कहा, "पुस्तकें तो उम्मीद से बहुत कम इकट्ठा हो पाई हैं। ऐसे में समझ में नहीं आ रहा कि क्या किया जाए।"

इस पर विवेक ने कहा, "क्यों न हम पुस्तकें दान में देने की मुहीम चलाएं। जैसे हमारे घरों में कुछ पुस्तकें इस्तेमाल में नहीं थी, वैसे ही अन्य घरों में बहुत सी पुस्तकें इस्तेमाल में नहीं होंगी।"

सब को विचार बहुत पसंद आ गया। इसके बाद हम सब मिलकर मोहल्ले के हर घर जाकर उनसे अपील करने लगे कि जो भी पुस्तक या पत्रिका वगैरह इस्तेमाल में नहीं है, उन्हें सत्य पार्क के पुस्तकालय में दान में दें तथा कबाड़ी को देने से अच्छा है, पुस्तकालय को दान में देकर पुण्य कमाएं। जल्द ही पुस्तकालय में 3000 से ज्यादा पुस्तकें इकठ्ठा हो गईं, 10 तरह के हिंदी-अंग्रेजी अखबार मिलने लगे तथा 7-8 तरह की साप्ताहिक, मासिक पत्रिकाएं भी मिलने लगीं। सबसे अच्छी बात ये थी कि यह सबके योगदान से हुआ था और खर्चा न के बराबर था।

धीरे-धीरे पुस्तकालय प्रसिद्ध होने लगा तथा इसे संभालने के लिए हमने बारी-बारी से ड्यूटी देनी शुरू कर दी। लोगों के लिए इस पुस्तकालय से हमें किताबें घर ले जाने की सुविधा हेतु हमें सुरक्षा राशि हेतु रजिस्टर भी लगाना पढ़ा। अब तो बच्चे भी अपने स्कूल से सम्बंधित किताबें तथा कॉमिक्स की मांग करने लगे।  साथ ही पूरे दिन जो लोग पार्क में थकान मिटाने, खाना-खाने तथा कुछ देर बैठने आते, उन्हें भी अखबार, मैगजीन आदि पढ़ने की आदत पड़ गई। हमें पहली बार एहसास हुआ कि इस टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट के युग में लोग किताबों से दूर नहीं हुए बल्कि किताबों को उनसे दूर कर दिया गया है! किताबें मिले तो पढ़ने वाले पाठक बहुत हैं।

अध्याय 6 - "एक अनोखा दोस्त"


एक दिन की बात है, जब विवेक और मैं सुबह पार्क में बातें करते हुए टहल रहे थे, तब अचानक विवेक का पांव गुलाब के कांटों से छिल गया। तभी वहां पास ही पौधों की कटाई-छंटाई कर रहे माली ने कहा, "भाई साहब जरा-सी खरोंच है, मैं अभी गेंदे के फूलों को मसल कर लगा देता हूं, घाव जल्दी ठीक हो जाएगा।"

विवेक बोला, "नहीं भाई, इसकी कोई जरूरत नहीं है, जरा सी खरोंच है, अभी घर जाकर इस पर दवा लगा लूंगा।"

तब तक वह माली पानी से हाथ धो चुका था और गुलाब के पौधे के साथ लगे गेंदे के फूलों को तोड़ कर हाथ में मसल कर ले आया था। वह पतली मगर बड़ी मीठी आवाज में बोला, "भाई साहब यह कुदरती एंटीसेप्टिक (Antiseptic) दवा है, जल्दी हीलिंग (Healing) हो जाएगी।"

उस माली के मुंह से एंटीसेप्टिक और हीलिंग शब्द सुन कर विवेक चौंका। देखने में वह व्यक्ति अधेड़ उम्र का एक माली ही लग रहा था, यहां तक कि उसने अपने सर पर गमछा लगा रखा था। मगर बोल-चाल से वह एक शिक्षित मालूम पड़ा। विवेक ने पूछा, "भाई आप तो अच्छे पढ़े-लिखे मालूम होते हो। फिर माली का काम क्यों कर रहे हो?"

वह व्यक्ति हंसा और बोला, "भाई साहब मैं बी.ए पास हूं और अपने गांव में टीचर था। रिटायर हो कर इस शहर में आया हूं।"

विवेक हैरान होकर बोला, "अरे भाई, तो आप को कोई नौकरी नहीं मिल रही क्या, जो आप ये माली का काम कर रहे हो ? ऐसा है तो मैं कोई काम दिला देता हूं। "

वह व्यक्ति फिर हंसा, "आप भी दूसरे लोगों की तरह धोखा खा रहे हैं। मैं तो यहां शौकिया माली हूं। मुझे फूल-पौधों से बहुत लगाव है। जिस फ्लैट में मैं रहता हूं, वहां धूप नहीं पहुंचती है और जगह भी बहुत छोटी है। इसलिए मैं इस पार्क में पिछले पांच साल से आ रहा हूं। यहां के माली मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है और थोड़ा-बहुत उन्हें भी सिखाया है।"

विवेक और मैं बहुत हैरान थे। विवेक बोला, "अरे दादा भाई मुझे माफ कीजिए। मैं आप को गलती से एक माली समझ कर पता नहीं किस तरह से बात कर रहा था। आपका नाम क्या है?"

इस पर वह व्यक्ति बोला,"अरे भाई साहब, आप माली को माली नहीं कहोगे तो और क्या कहोगे। मेरा नाम देवेंद्र चतुर्वेदी है। वैसे मैंने आपका पुस्तकालय देखा है। वहीं एक कोना बंजर पड़ा था। बिल्कुल सड़क के पास है। कहते हैं कि पार्क बनने से पहले ही एक रसायन से भरी ट्रक उस जगह उलट गई थी, जिस कारण वहां की जमीन बंजर हो गई। आपने उस जगह का बहुत ही अच्छा उपयोग किया है। ओह हो, देखिए न बातों-बातों में मैं यह देशी दवा आपकी चोट पर लगाना ही भूल गया। अगर आप ठीक समझें तो इस दवा को लगाकर देखिए, आपकी खरोंच तीन-चार दिन में ठीक हो जाएगी और दोबारा कोई दवा भी नहीं लगाना पड़ेगा।"

विवेक न मालूम क्या सोचकर बोला,"चलिए, आपकी बातों पर विश्वास करके यह दवा लगा कर देख लेता हूं।" और विवेक ने सचमुच गेंदे के पत्तों का लेप लगवा लिया।

उस दिन के बाद तो हर रोज पार्क में देवेंद्र चतुर्वेदी जी से मिलना हो जाता। विवेक तो उनकी बातों और ज्ञान से बहुत प्रभावित हो गया था। देवेंद्र जी अपने परिवार के बारे में ज्यादा बात नहीं करते थे। इतना जरूर पता चला कि उनके बेटे का देहांत हो चुका था और वह अपनी बहु और इकलौते पोते के साथ रहते थे। घर चलाने के लिए उनकी बहू नौकरी करती थी और देवेंद्र खुद शाम को आस-पास के बच्चों को ट्युशन पढ़ाया करते थे।

विवेक तो देवेंद्र से खूब बातें किया करता। देवेंद्र भी उसे फूल-पौधों की खूब रोचक जानकारी बताते। देवेंद्र जी बताते, "यह देखो, यह घृतकुमारी का पौधा है। अंग्रेजी में इसे एलोवेरा कहते हैं। कॉस्मेटिक्स और विभिन्न बीमारियों के इलाज में इसका इस्तेमाल होता है। आयुर्वेद में यह एक चमत्कारिक दवा है। पीलिया से लेकर मधुमेह तक के इलाज में इसका बहुत महत्त्व है।" तो कभी बताते, "क्या आपको पता है कि केले के पेड़ का हर हिस्से का कुछ न कुछ उपयोग है। या बम्बू असल में पेड़ नहीं बल्कि घास होती है जो दुनिया में सबसे तेज उगने वाले पौधों में से एक है तथा हर चालीस मिनट में लगभग एक इंच उगती है।" पौधों की विशेषता बताते वक्त देवेंद्र कभी थकते नहीं थे।

विवेक भी देवेंद्र जी को अपने बड़े भाई की तरह सम्मान देता तथा उनकी बातों को बहुत रुचिपूर्वक सुनता। उनसे पूछ-पूछ कर ही विवेक ने अपने घर में बहुत से पौधे लगाए।

अध्याय 7 - "समस्या का अनोखा समाधान"


एक दिन की बात है, अनुराग दत्ता जी पार्क की एक बेंच पर बैठे-बैठे रो रहे थे। मल्होत्रा जी उन्हें पुस्तकालय के बरामदे में ले आए, जहां मै, खन्ना, वर्मा आदि सब बैठे गप-शप कर रहे थे। विवेक ने उनसे पूछा, "अरे दत्ता साहब, क्या बात है ? आप क्यों रो रहे थे ? बताइए आप को क्या परेशानी है, हम सब मिलकर सुलझाते हैं?"

दत्ता जी बोले, "मैं रिटायर हुआ तो सोचा था कि अब आराम से जीवन बिताऊंगा। अब बेटे की बारी है मेरी सेवा करने की। मैंने उसे बहुत लाड़-प्यार से पाल-पोस कर बढ़ा किया था। उसे पढ़ाया लिखाया और अच्छी नौकरी दिलाई लेकिन शादी होते ही बहू का गुलाम हो गया। मैं जब तक नौकरी करता रहा, तब तक मुझे इस बात का एहसास भी नहीं था। लेकिन रिटायर होने के बाद से ही मेरी बहू ने मेरा जीना हराम कर दिया है। हर वक्त ताने मारती है। खाना तक अपमानित कर-कर के देती है। कभी कहती है कि मुफ्त की रोटी खा कर लोगों को शर्म भी नहीं आती। कभी बासी खाना देती है तो कभी जला। याद ही नहीं पड़ता कि कब पेट भरके खाना खाया था। बेटा ऐसा निकला कि बीवी की हां में हां मिलता है। काश मैंने पेंशन के सारे पैसे बेटे को न दिए होते तो मैं कहीं और रह लेता। मेरी बीवी लता जिन्दा होती तो मेरा कुछ सहारा होता।"

इसके बाद वे फूट-फूट कर रोने लग गए। विवेक बोला, "आप फिक्र मत करो। हम सब इस बारे में सोचते हैं। कल तक कुछ न कुछ रास्ता जरूर निकल जाएगा।"

विवेक ने मल्होत्रा जी से विचार-विमर्श करके खन्ना साहब के साथ दत्ता जी को पास के ढाबे में खाने-पीने के लिए भेज दिया।

इसके बाद विवेक ने सब से पूछा, "आप के विचार से क्या हल हो सकता है ?" किसी ने कहा कि इनके बेटे और बहू से बात करनी चाहिए, तो कोई बोला कि दत्ता साहब को किसी बुजुर्ग आश्रम में शिफ्ट हो जाना चाहिए।

इस पर विवेक ने टोका, "देखिए बुजुर्ग आश्रम कोई हल नहीं है। इससे दत्ता साहब पूरी तरह से अकेले हो जाएंगे जबकि उनके बेटे और बहू को कोई फर्क नहीं पढ़ेगा। इसके अलावा बुजुर्ग आश्रम में हालत घर से बेहतर होगी इसकी क्या गारंटी है?" विवेक कुछ क्षण चुप रहा और गम्भीरतापूर्वक बोला, " मेरे पास एक आईडिया है। थोड़ा अटपटा है, लेकिन अगर आप सब साथ देंगे तो दत्ता साहब को न तो घर छोड़ने की जरूरत पड़ेगी और न ही उन्हें बेवजह अपमानित होना पड़ेगा।"

सभी उत्सुकतावश पूछने लगे कि ऐसा कौन सा तरीका है?

विवेक ने अपना विचार बताया, "देखिए, दत्ता साहब को ताने सिर्फ इस लिए पड़ रहे हैं न कि वे रिटायर हो चुके हैं। इसलिए मैं सोच रहा था कि अगर दत्ता साहब को पुस्तकालय की जिम्मेदारी दे दी जाए तो कैसा रहे, वह भी तनख्वाह पर?" विवेक आगे बोला, "पुस्तकालय का काम पहले से बहुत ज्यादा बढ़ गया है। हमारे लिए संभालना भी बहुत मुश्किल हो रहा है। वैसे भी बारी-बारी से संभालने के चक्कर में बड़ी दिक्कत आती है। बहुत बार तो ऐसा होता है कि एक ही जन को अकेले ही सारा काम देखना पड़ता है।"

सभी एक साथ बोले, बिल्कुल सही बात है। कोई बोला एक दिन तो मुझे डॉक्टर के पास जाने का मौका तक नहीं मिला था। तो किसी ने कहा कि एक बार तो उसे घर जाकर खाना खाने तक नहीं मिला। सभी विवेक की बातों से सहमत थे।

विवेक ने आगे कहा, "दत्ता साहब लंच भी पुस्तकालय में कर लिया करेंगे, जिसके लिए मैं पास के ही एक होटल से टिफिन सर्विस शुरू करवा दूंगा। शाम को भी वे कुछ न कुछ खाने को साथ ले जाया करेंगे। दत्ता जी को घर से लेने और छोड़ने के लिए मैं अपनी गाड़ी लगवा दूंगा। बारी-बारी से किसी-न-किसी बहाने से हम लोग उनके घर मिलने जाया करेंगे। दत्ता साहब को हम वी.आई.पी पर्सन बनाएंगे। उन्हें मैं अपना पुराना मोबाइल फोन भी दे दूंगा। जब भी दत्ता साहब घर में होंगे, हम किसी न किसी बहाने उन्हें फोन करके हाल-चाल पूछ लिया करेंगे।"

विवेक आगे बोला, "इसके अलावा दत्ता साहब की हिंदी और अंग्रेजी बहुत अच्छी है, इसलिए हम उन्हें घर जाते समय कुछ न कुछ प्रूफ-रीडिंग या अनुवाद का काम भी दे दिया करेंगे ताकि वे घर पर भी व्यस्त रहें। कहने का मतलब है कि पुस्तकालय के बाद भी जब वे घर पर होंगे तो भी हम उन्हें व्यस्त रखेंगे। इतना व्यस्त कि उनके पास अपने बेटे व बहू की बातों को सुनने का टाइम ही न हो। इससे होगा यह कि बहू को कड़वे बोल बोलने का अवसर ही नहीं मिलेगा। इसके अलावा धीरे-धीरे हम लोगों को आते-जाते देखकर इनकी बहू भी दत्ता साहब का आदर करने लगेगी। "

विवेक का आईडिया सुनकर सभी वाह-वाह कर उठे। तब तक खन्ना जी के साथ दत्ता जी भी वापस आ चुके थे। जब उन्हें सारी बात बताई गई तो उनकी आंखों में खुशी के आंसू आ गए। उन्होंने हाथ जोड़कर सबकी और देखा मगर उनके पास शब्द नहीं थे।

विवेक ने उनके हाथों को अपने हाथों में लिया और कहा, "दत्ता जी आप अपने-आप को अकेले मत समझिए। हम सभी आप के साथ हैं। और हां, अब से आपको रोना नहीं सिर्फ हंसना है।"

मल्होत्रा जी भी दत्ता जी का पीठ थपथपा कर बोले, "दत्ता जी अब तो आप बहुत व्यस्त हो जायेंगे, टाइम मिला तो हमें भी फोन कर लिया करना।" उनकी बात सुनकर सभी हंस दिए।

सचमुच कुछ ही दिनों में दत्ता साहब के घर का भी माहौल बदलने लग गया। इसके अलावा दत्ता जी भी अब बहुत खुश रहने लगे और पुस्तकालय का कार्य भी उन्होंने पूरे जोश और लगन से संभाल लिया था।

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