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सोमवार, मार्च 16, 2020

सुपर बुजुर्ग - एक मौलिक कहानी - भाग - 2

सुपर बुजुर्ग

मौलिक रचना | Maulik Rachna प्रस्तुत करता है सुपर बुजुर्ग - एक मौलिक कहानी।

भाग - 2

अध्याय 8 - 'बुजुर्गों का, बुजुर्गों के द्वारा, बुजुर्गों के लिए संगठन"


हर रोज की तरह सत्य पार्क में हम सभी दोस्त इकट्ठा बैठे गप्पे मार रहे थे। तभी विवेक ने कहा, "दोस्तों, मुझे एक विचार आया है। इस पर मैं आप सब की रॉय जानना चाहता हूं। मैं यह सोच रहा था कि हम लोगों का बहुत अच्छा ग्रुप बन गया है। ऐसे में क्यों न हम अपना एक N.G.O. बना लें? दत्ता जी की परेशानी ने हमें एक चेतावनी दी है कि जो परेशानी उन पर आई थी उस जैसी या कोई दूसरी समस्या अन्य बहुत से बुजुर्गों को भी झेलनी पड़ती होगी। बस इसी बात से मेरे मन में ये ख्याल आया है कि हमें एक N.G.O. बनाकर पीड़ित बुजुर्गों की मदद करनी चाहिए और उनके हक के लिए आवाज उठानी चाहिए।"

मल्होत्रा जी ने सवाल किया, "लेकिन ये N.G.O. बनेगा कैसे? हम में से तो किसी को भी N.G.O. चलाने का अनुभव नहीं है?"

विवेक ने जवाब दिया, "आप ठीक कह रहे हैं। N.G.O. चलाने का अनुभव तो मुझे भी नहीं है। मगर कोशिश करने में क्या हर्ज है। आखिर किसी को तो पहल करनी पड़ेगी। हम ने तो बिना कोई संगठन बनाए ही दत्ता जी की परेशानी का समाधान कर के दिखाया है। मुझे तो गैर सरकारी संगठन बनाने का विचार सिर्फ इसलिए आया है कि इसके माध्यम से हमें पीड़ित बुजुर्गों को ढूंढ़ना नहीं पड़ेगा बल्कि वे खुद ही मदद के लिए हमसे संपर्क कर पाएंगे। मुझे यकीन है कि हम सब अगर निश्चय कर लें तो साथ मिलकर N.G.O. भी चला सकते हैं। 

मल्होत्रा जी ने आपत्ति जताते हुए कहा, "मगर विवेक, एक बात तो बताओ, हम अपने बल-बुते पर कैसे N.G.O. को चला पाएंगे? "सबका पुस्तकालय" को बारी-बारी से चलाने पर ही हमारी हालत खराब हो गई थी। अगर दत्ता साहब समय पर पुस्तकालय के काम को न संभालते तो हम कब तक पुस्तकालय को चला पाते?"

विवेक कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, "मल्होत्रा जी, ऐसा तो आप अब कह रहे हैं। हम सब ने न सिर्फ पूरे जोश और उत्साह से "सबका पुस्तकालय" खोला था बल्कि तमाम मुश्किलों के बावजूद हम सब मिलकर बारी-बारी से पुस्तकालय चला रहे थे। ये सच है कि कई बार किसी एक पर पुस्तकालय की सारी जिम्मेदारी आने से उसे परेशानी हो जाती थी। मगर तब भी हम में से किसी ने भी पुस्तकालय के प्रति अपने दायित्व से मुंह नहीं मोड़ा था। हर बार पूरे उत्साह से हम अपनी जिम्मेदारी को निभाते थे। इसलिए दत्ता साहब को पुस्तकालय की जिम्मेदारी मिलना सिर्फ नियति ही है। कम से कम दत्ता साहब की वजह से हमें ये तो पता चला कि बुजुर्गों को कितनी तकलीफों का सामना करना पड़ता है।"

हर कोई विवेक की बात से सहमत हुआ। मगर खन्ना जी ने भी आशंका जाहिर की और कहा, "N.G.O. चलाना तो बहुत जिम्मेदारी का काम है? क्या हम सब मिलकर इस तरह की जिम्मेदारी को निभा पाएंगे?"

विवेक ने जवाब दिया, "अगर हम सब मिल-जुल कर समाज सेवा की इच्छा से कोई कार्य करेंगे तो हम बड़ी से बड़ी समस्या का सामना कर सकते हैं परन्तु अगर हम सिर्फ अपने बारे में सोचकर कार्य करेंगे तो छोटी-छोटी परेशानियां भी हमें बहुत बड़ी लगेंगी। इसलिए यह सवाल हम सब को अपने आप से करना है कि क्या हम सब मिलकर अपना कोई बुजुर्ग संगठन बनाकर चलाने की ताकत रखते हैं या नहीं ?

सभी को विवेक की बात बिल्कुल सही लगी और सभी जन बुजुर्ग संगठन बनाने के लिए सहर्ष तैयार हो गए। फिर सवाल उठा कि संगठन का क्या नाम रखा जाए। किसी ने कहा सत्य पार्क के नाम पर ही सत्य संगठन नाम रख दिया जाए तो किसी ने कहा कि इस संगठन का नाम अंकल एंड आंटी संगठन रख दिया जाए।

अंत में विवेक बोला, "हमारा संगठन "बुजुर्गों का, बुजुर्गों के द्वारा और बुजुर्गों के लिए" होगा तो क्यों न हम अपने संगठन का नाम "बुजुर्ग क्लब" ही रख लें ?"

इस पर सभी लोग तुरंत सहमत हो गए। इस पर विवेक बोला, "तो ठीक है। मैं इस नाम और संस्था को रजिस्टर्ड करने के लिए अपने सी.ए. से बात करता हूं तथा आप सब को दो-तीन दिन में खुशखबरी देता हूं।"

दो दिन बाद विवेक ने बताया कि, "सी.ए. के साथ विचार-विमर्श करने पर मुझे यह पता चला है कि कोई भी N.G.O. को रजिस्टर्ड करने के लिए स्थाई पते की जरूरत होती है और किसी भी संस्था को सार्वजनिक पार्क के पते पर रजिस्टर्ड नहीं किया जा सकता है। इसका एक उपाय यह निकला है कि अगर हम बुजुर्ग क्लब को मेरे घर के पते पर रजिस्टर्ड कर लेते हैं तो हमें किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं आएगी। बाद में कोई अच्छी जगह लेकर अपने ऑफिस को स्थानांतरित कर लेंगे। तब तक बुजुर्ग क्लब के सभी कार्य और मीटिंग हम यहां इसी सत्य पार्क में भी कर सकते हैं। अगर आप सब को यह सुझाव ठीक लगता है तो ही मैं इस उपाय पर अमल कर सकता हूं।"

किसी को भी कोई आपत्ति नहीं थी। कुछ ही दिनों में हमारा बुजुर्ग क्लब रजिस्टर्ड हो गया। हमने सत्य पार्क में ही अपनी पहली मीटिंग रखी, जिसमें क्लब के प्रेजिडेंट, सेक्रेटरी व अकाउंटेंट का चुनाव किया जाना था। सबने सर्वसम्मति से विवेक को ही क्लब का प्रेजिडेंट बनाया। विवेक कहता रहा कि मल्होत्रा साहब को प्रेजिडेंट बनाया जाना चाहिए क्योंकि वे हम सब से उम्र में बड़े हैं, मगर उसकी एक न चली। स्वयं मल्होत्रा जी ने भी विवेक को प्रेजिडेंट बनाए जाने की स्वीकृति दी और कहा कि, "विवेक हम सब से ज्यादा समझदार और काबिल है और विवेक के बुजुर्ग क्लब का प्रेजिडेंट बनने से हमारा क्लब और मजबूत होगा।"

इसके बाद मल्होत्रा जी को क्लब का सेक्रेटरी बनाया गया तथा अकाउंटेंट मुझे बनाने की बात हुई मगर मैंने खन्ना जी के नाम का प्रस्ताव किया और कहा, "मैं फील्ड वर्क को ज्यादा अच्छे से कर सकता हूं जबकि खन्ना जी अकाउंटेंट हैं इसलिए उन्हें ही इस पद को संभालना चाहिए।" इसलिए खन्ना जी को अकाउंटेंट का पद दे दिया गया। इसी प्रकार से अन्य पदों के लिए भी उचित व्यक्तियों का चुनाव कर लिया गया।

विवेक बोला, "मैं बुजुर्ग क्लब के उद्घाटन पर आप सब को बधाई देता हूं। मैं आपके सामने प्रस्ताव रखता हूं कि हमारे बुजुर्ग क्लब का एक ही मकसद और नारा होगा कि, "एक बुजुर्ग दूसरे बुजुर्ग की जरूर मदद करेगा।" सभी ने इस प्रस्ताव का तालियां बजाकर स्वागत किया।

विवेक आगे बोला, "मैं क्लब की ओर से दत्ता साहब को बेहतरीन तरीके से पुस्तकालय संभालने के लिए तथा देवेंद्र सेन जी को इस उम्र में भी, बिना किसी लालच के, सत्य पार्क को फूल-पौधे लगाकर सुन्दर बनाने व पार्क में आने वाले लोगों की निस्वार्थ भाव से सेवा करने के लिए सम्मानित करने का प्रस्ताव देता हूं। अगर सेक्रेटरी साहब और आप सब की इजाजत हो तो इस प्रस्ताव को मंजूर किया जाए।"

सभी एक स्वर में बोले, " प्रस्ताव मंजूर किया जाए।" इसके बाद क्लब के आरम्भ होने की खुशी में सबने लड्डू और समोसे खाए।

दो दिन बाद दत्ता साहब और देवेंद्र जी को शॉल ओढ़ाकर तथा हार पहनाकर सम्मानित किया गया।

इसके बाद विवेक बोला, "मैं क्लब की दूसरी मीटिंग दत्ता साहब के घर रखने का प्रस्ताव रखता हूं।" इस पर सभी लोग हंस दिए और तालियां बजाकर इस फैसले का स्वागत किया।

दत्ता साहब बोले, "मैं विवेक और आप सब का सदैव आभारी रहूंगा। आप लोगों ने मुझे नया और सम्मानजनक जीवन दिया है। अब तो मेरी बहू भी मुझे ताना नहीं मारती, बल्कि बहुत आदर से बात करती है। आप जरूर मेरे यहां मीटिंग रखें, मुझे अब कोई परेशानी नहीं है।"

इस पर सभी ने बहुत तालियां बजाई। सबके चेहरे पर कुछ अच्छा कर पाने और उसमें सफल होने का भाव था।

अध्याय 9 - "एक बुरी खबर"


एक दिन की बात है, जब विवेक और मैं सत्य पार्क में टहलते हुए बातें कर रहे थे तभी उसी समय एक माली हमारी ओर दौड़ता हुआ आया और बोला कि, "देवेंद्र जी को दिल का दौरा पड़ा है। उन्हें नजदीक के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया गया है।"

विवेक को यह खबर सुनकर बहुत सदमा पहुंचा। उसने दुःखी स्वर में माली से बोला, "हे भगवान! यह तो बहुत बुरा हुआ। मगर यह कैसे हुआ, कब हुआ?" माली से सारा हाल जानकर हम अस्पताल पहुंचे तो वहां देवेंद्र जी की बहू लक्ष्मी मिली, जिसका रो-रो कर बुरा हाल था। विवेक ने उसे सांत्वना दी और डॉक्टर दीपक सहाय से मिले।

डॉ. सहाय ने बताया, "पेशेंट को तीव्र हार्ट अटैक आया था और उनकी हालत बहुत नाजुक है। उन्हें आईसीयू में रखा गया है। उनकी धमनियों में सिकुड़न है। इसके अलावा उन्हें अस्पताल लाने में हुई देरी के कारण भी स्थिति गंभीर हो गई है। अगले दो दिन उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।"

विवेक ने डॉ. सहाय से ईसीजी आदि रिपोर्ट्स लिए तथा मोबाइल से फोटो लेकर अपने मित्र डॉ. ओम खुराना को व्हाट्सएप्प कर दिया तथा उसे फोन कर के सारा हाल बताया। जिसके बाद डॉ. खुराना ने डॉ. सहाय से देवेंद्र जी के हो रहे इलाज की पूरी जानकारी ली। फिर विवेक को फोन करके बताया कि, "डॉ. सहाय सही इलाज कर रहे हैं तथा आगे भी वह उनसे पूरी अपडेट लेते रहेंगे।"

तब विवेक ने लक्ष्मी को सारी बात बताकर उसे ढाढस बंधाया और उसे प्रतीक्षालय में आराम करने के लिए कहा।विवेक और मैं भी दो दिनों तक अस्पताल के प्रतीक्षालय में ही रुके तथा डॉ. सहाय से देवेंद्र जी के बारे की हालत के बारे में जानकारी लेते रहे।

मगर तीसरे दिन देवेंद्र जी को दोबारा दिल का दौरा पड़ा और उनकी स्थिति बहुत नाजुक हो गई। डॉ. सहाय ने उन्हें सिटी हार्ट केयर अस्पताल शिफ्ट करने की सलाह दी।

विवेक ने अपने दोस्त डॉ. खुराना से सलाह की और उसके बाद डॉ. सहाय की देख-रेख में देवेंद्र जी को सिटी अस्पताल में शिफ्ट किया गया और आईसीयू में रखा गया।

अध्याय 10 - "मृतक दानकर्ता के महादान से बचेगी जान"


सिटी हार्ट केयर अस्पताल के डॉ. दलबीर सिंह ने हमें प्रतीक्षालय में इंतजार करने को कहा। विवेक, लक्ष्मी और मैं वेटिंग रूम में बेचैन होकर बैठे रहे। करीब दो घंटे बाद डॉ. दलबीर सिंह हमसे मिले और उन्होंने बताया कि, "पेशेंट की हालत काफी सीरियस है। उनका हार्ट कमजोर हो गया है तथा ठीक से काम नहीं कर रहा है। अगर उनकी स्थिति में कुछ सुधार आता है, तब ही हम यह तय कर सकते हैं कि आगे क्या करना है।"

विवेक लगातार अपने दोस्त डॉ. खुराना से इस बारे में विचार विमर्श करता रहा तथा उसकी बात डॉ. दलबीर से भी करवाता रहा। अगले दिन डॉ. दलबीर ने हमें बताया कि, "पेशेंट की हालत में थोड़ा सुधार हुआ है मगर उनका हार्ट फैल हो रहा है। रिपोर्ट्स देखकर हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि पेशेंट को बचाने के लिए हार्ट ट्रांसप्लांट ही एकमात्र रास्ता बचता है। मगर इस तरह का ऑपरेशन बहुत महंगा होता है। इसके अलावा ऑपरेशन तभी संभव है जब कोई स्वस्थ डोनर मिले।"

विवेक ने अपने दोस्त डॉ. खुराना से बात की और उन्हें अस्पताल बुलाया। डॉ. खुराना अस्पताल आए और उन्होंने सारी रिपोर्ट्स देखकर डॉ. दलबीर सिंह से विचार-विमर्श किया। बाईपास सर्जरी, पेसमेकर आदि पर भी चर्चा हुई मगर अंत में उन्होंने भी हार्ट ट्रांसप्लांट के फैसले को सही ठहराया।

तब विवेक ने डॉ. खुराना और डॉ. दलबीर से पूछा कि, "यह हार्ट ट्रांसप्लांट कैसे होता है और डोनर कौन होते हैं?"

डॉ. दलबीर ने बताया कि, "ऐसे कई अस्पताल और गैर सरकारी संगठन हैं जो एकल या साथ मिलकर लोगों से मृत्यु उपरांत शरीर के महत्वपूर्ण अंगों जैसे कि हार्ट, आंखें आदि को दान में देने की अपील करते हैं तथा इसके लिए वे कई तरह के प्रोग्राम व कैंप का आयोजन करते हैं। जो लोग मृत्यु होने पर अंग दान करने के इच्छुक होते हैं, उनसे स्वीकृति पत्र एवं फॉर्म भरवाकर, उनका पंजीकरण किया जाता है। साथ ही उन्हें कार्ड भी बनाकर दिया जाता है जिसमें पंजीकरण नंबर आदि सारे विवरण होते हैं। कभी दुर्भाग्यवश ऐसे डोनर को ही अंग दान की जरूरत पड़ती है तो उन्हें प्राथमिकता दी जाती है।"

डॉ. खुराना ने आगे बताया, "मगर बहुत दुःख की बात है कि इस विषय के बारे में लोगों में ज्यादा जागरूकता नहीं है। इसलिए आज भी बहुत से लोगों की जान सिर्फ इसलिए जाती है क्योंकि उन्हें बचाने के लिए जरूरी अंग उपलब्ध नहीं हो पाते। बहुत बार तो मृतक के डोनर होने के बावजूद भी उनके परिवार वाले भावुकता के चलते अथवा धार्मिक अन्धविश्वास के कारण अंगों का दान नहीं होने देते। वे लोग इस बात को नहीं समझते कि जब मृत्यु के बाद शरीर को पंचतत्वों में विलीन होना ही है, तो इससे अच्छा है की महत्वपूर्ण अंगों को दान देकर लोगों की जान बचाई जाए।"

डॉ. दलबीर ने भी इस बात को स्वीकार करते हुए बताया कि, "जरूरी अंगों की भारी कमी के चलते बहुत से असामाजिक तत्व रैकेट चला कर अंगों की खरीद-फरोख्त करते हैं तथा जरूरतमंद परिवारों से अंगों के बदले अवैध धन वसूलते हैं। अखबारों में कई बार ऐसे किडनी गिरोह की खबरें आती हैं जो कि गरीबों को पैसों का झांसा देकर फंसाते हैं और उनका अवैध ऑपरेशन करके उनकी किडनी निकालते हैं तथा महंगे दामों में उन्हें जरूरतमंदों को बेचते हैं। खैर, मैं आपको जरूरी अंग उपलब्ध करवाने वाले पंजीकृत गैर सरकारी संगठन तथा उनसे जुड़े अस्पतालों की लिस्ट उपलब्ध करवा देता हूं। भगवान ने चाहा तो हार्ट उपलब्ध हो जाएगा।"

विवेक ने पूछा, "डॉक्टर साहब, ऑपरेशन में कितना खर्च आएगा और ऑपरेशन कब तक कराना होगा?

डॉक्टर दलबीर बोला, "ऑपरेशन में करीब तीस लाख रुपए लगेंगे मगर ऑपरेशन तभी मुमकिन है जब हार्ट उपलब्ध हो तथा डोनर का ब्लड टाइप आदि पेशेंट के लिए सुरक्षित हो। तब तक, कुछ दिनों के लिए ऑपरेशन को टाला जा सकता है मगर उन्हें अस्पताल में ही एडमिट रहना होगा।"

विवेक कुछ देर खामोश रहा फिर बड़े दृढ़ स्वर में बोला, "ठीक है, आप देवेंद्र जी का ख्याल रखिए, मैं पैसों का भी प्रबंध करता हूं तथा डोनर का पता लगाता हूं।"

अध्याय 11 - "जो मृत्यु पश्चात करे अंग दान, वह महामानव नव - दधीचि समान"


अस्पताल से बाहर निकल कर विवेक ने डॉ. खुराना को कहा कि, "अगर हार्ट डोनर की खबर मिले तो मुझे जरूर बताना।" इसके बाद उसने डॉ. खुराना के अस्पताल आने का धन्यवाद करते हुए उन्हें विदा किया।

लक्ष्मी रो रही थी मगर उसने हिम्मत करके विवेक से पूछा, "अंकल जी, मेरे पास तो पैसे नहीं हैं तो फिर ऑपरेशन कैसे होगा?" विवेक लक्ष्मी से बोला, "उसकी चिंता तुम मत करो बेटी, बस हिम्मत मत छोड़ना, सब ठीक हो जाएगा। चलो मैं तुम्हें घर तक छोड़ देता हूं। उसके बाद मैं अपने मित्र डॉक्टरों से मिलने चला जाऊंगा।"

तब मैंने उसे एक तरफ ले जाकर पूछा, "विवेक तुम सोच-समझकर तो फैसला कर रहे हो न? कहीं भावुक होकर तो ऐसा निर्णय लेने की नहीं सोच रहे हो न? आखिर इतनी बड़ी रकम का इंतजाम कैसे कर पाओगे?"

विवेक मेरे सवालों को अनसुना करते हुए बोला, "विजय तुम इन संगठनों की लिस्ट लो और हर एक के ऑफिस में जाकर पता करो कि कोई हार्ट उपलब्ध है कि नहीं? साथ ही अखबार में भी "हार्ट ट्रांसप्लांट के लिए हार्ट की जरूरत है, कोई डोनर है तो संपर्क करें" का विज्ञापन दे  दो। जो खर्च आए मुझ से ले लेना। मैं भी अपने कुछ डॉक्टर मित्रों से ऑपरेशन के बारे में रॉय ले लेता हूं तथा उन्हें भी कहता हूं कि हार्ट डोनर का पता लगाएं।"

इसके बाद उसने मुझसे विदा लिया और लक्ष्मी को उसके घर छोड़ने चला गया।

मैं काफी देर वहीं खड़ा सोचता रहा कि पैसों का इंतजाम कहां से होगा। मुझे लगा कि विवेक जोश में काम कर रहा है होश में नहीं। परन्तु मेरी भी मजबूरी थी कि कहीं दोस्त नाराज न हो जाए, इसलिए विज्ञापन देने तथा विभिन्न संगठनों के दफ्तरों में हार्ट डोनर की उपलब्धि का पता लगाने मुझे जाना पड़ा। हर दफ्तर के मैनेजर ने मुझे एक ही बात बताई कि, "फिलहाल तो कोई डोनर उपलब्ध नहीं है। आप अपना मोबाइल नंबर दे जाओ तथा किसी डोनर के बारे में पता चलने पर हम तुरंत आपको सूचित करेंगे।"

विवेक भी अपने मित्र डॉक्टरों से यही प्रार्थना कर के आया था कि अगर कोई डोनर मिले तो उसे तुरंत सूचित करें। विवेक जब भी मुझसे मिलता तो एक ही बात पूछता, "कोई डोनर मिला?" मैं जब नकारत्मकता में सिर हिला देता तो वह कहता, "ऑर्गन डोनेशन ऑफिसों में फोन कर के पूछो कि क्या अभी तक किसी ने उनसे संपर्क क्या है?"

इसी तरह 15 दिन हो गए थे। मैं घर पर बैठा आराम कर रहा था। तभी मोबाइल बज उठा। मैंने मोबाइल उठाया तो महादानी कर्ण संस्था के मैनेजर ने बताया कि, "एक डोनर का पता चला है। उसकी गाड़ी का बस के साथ एक्सीडेंट हो गया था तथा शास्त्री अस्पताल ले जाने पर उसे "ब्रेन डेड" घोषित कर दिया गया है। घर वालों ने हमें बताया कि उनके बेटे ने हमारी संस्था को अपने शरीर के महत्वपूर्ण अंगों को डोनेट करने का वादा किया था। इसलिए वे अपने बेटे की इच्छा का सम्मान करना चाहते हैं, जिसके बाद उसका अंतिम संस्कार किया जाएगा।"

जब मैंने विवेक को फोन करके सारी बात बताई, तो विवेक बोला, "तुम सिटी हार्ट केयर अस्पताल में फोन कर के डॉक्टर दलबीर को सारी जानकारी दो। तब तक मैं तुम्हारे घर पहुंचता हूं।"

विवेक जब मेरे घर आया तब मैंने उसे बताया, "मैंने पूरी जानकारी डॉक्टर साहब को दे दी थी। उन्होंने कहा है कि वे शास्त्री अस्पताल के डॉक्टरों से बात करेंगे तथा डोनर के टेस्ट वगैरह कराकर पूरी रिपोर्ट ले लेंगे। उसके बाद मुझे फोन करेंगे।"

लगभग एक घंटे बाद डॉक्टर दलबीर का फोन आया। उन्होंने बताया कि, "सब रिपोर्ट ठीक है। आप देवेंद्र जी की बहू को साथ लेकर शास्त्री अस्पताल जाओ और सारी प्रक्रिया पूरी करो। उसके बाद हार्ट को सिटी हार्ट केयर अस्पताल में पहुंचाने का बंदोबस्त करवाओ।"

हम देवेंद्र जी की बहू लक्ष्मी को साथ लेकर पहले महादानी कर्ण संस्था गए। वहां की प्रक्रिया को पूरी करने के बाद उनके कर्मचारी सुखदेव को भी अपने साथ लेकर शास्त्री अस्पताल गए। वहां जिस युवक की मृत्यु हुई थी, उसका परिवार भी वहां मौजूद था। विवेक ने उनसे मिलकर शोक जताया और बोला कि, "आपके बेटे की असमय मृत्यु का हमें बहुत दुःख पहुंचा है। मैंने तो अब तक महर्षि दधीचि के बारे में ही सुना था जिन्होंने देवताओं को अपनी अस्थियों का दान किया था। आपका बेटा भी नवदधीचि के समान है जो मृत्यु के बाद अंगों का महादान करने के लिए अमरता को प्राप्त हुआ है। उनका महादान कइयों को नया जीवन देगा। मैं आपके बेटे को शत शत नमन करता हूं। मैं आपको भी उसके माता-पिता होने के लिए हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूं।" इतने दुःख में होने के बावजूद भी उन्होंने जवाब में विवेक का धन्यवाद किया।

तब विवेक ने लक्ष्मी से उनका परिचय कराया और बोला कि, "यह देवेंद्र जी की बहू लक्ष्मी है। आपके बेटे के महादान के कारण ही इसके ससुर की जान बचेगी।" लक्ष्मी ने भी हाथ जोड़कर रोते हुए कहा कि, "आपके बेटे की मृत्यु का मुझे बहुत दुःख है।"

फिर हम डॉक्टर से मिले। सारी प्रक्रिया पूरी की तथा हार्ट को सिटी हार्ट केयर अस्पताल भेजने का इंतजाम कराया। वहां डॉ. दलबीर ने हमें कहा कि, "दो दिन बाद ऑपरेशन किया जाना तय हुआ है, मगर उससे पहले आप ऑपरेशन के लिए तीस लाख रुपए अस्पताल में जमा करवा दीजिए।" 

विवेक ने लक्ष्मी को अस्पताल में ही रुकने के लिए कहा और उसके खाने-पीने का इंतजाम भी करवा दिया। 

अस्पताल से बाहर निकलकर विवेक ने सुखदेव को विदा किया। तब मैंने विवेक से पूछा कि पैसों का इंतजाम कैसे होगा?

विवेक मेरे सवालों का जवाब दिए बगैर बोला, "विजय तुम बुजुर्ग क्लब के सभी सदस्यों को सूचित करो और कहो कि आज शाम साढ़े सात बजे बुजुर्ग क्लब की इमरजेंसी मीटिंग है तथा सभी सदस्य ठीक समय पर सत्य पार्क पहुंचे। मुझे जरूरी काम है। मैं साढ़े पांच बजे मीटिंग में मिलता हूं।" मैंने बुजुर्ग क्लब के सभी सदस्यों को विवेक का सन्देश दे दिया।

अध्याय12 - "बुजुर्ग क्लब बनाने का मकसद मिला"


शाम को ठीक साढ़े सात बजे बुजुर्ग क्लब का हर सदस्य सत्य पार्क में उपस्थित था। सब मुझसे पूछ रहे थे कि, "इस तरह इमरजेंसी मीटिंग किसलिए रखी गई है ? विवेक कहां है? मीटिंग का कारण क्यों नहीं बताया गया?

तब मैंने उन्हें देवेंद्र जी को दिल का दौरा पड़ने के बाद हार्ट फेल होने से लेकर हार्ट के इंतजाम होने तक की सारी बात बता दी। मैंने उन्हें बताया की उनका दो दिन बाद इमरजेंसी ऑपरेशन होना है। तब तक विवेक भी आ गया।

विवेक आते ही बोला, "दोस्तों विजय ने आप सब को बताया होगा कि देवेंद्र जी को दिल का दौरा पड़ा है और उनका ऑपरेशन के द्वारा हार्ट ट्रांसप्लांट होना है। इस ऑपरेशन के लिए तीस लाख रुपए लगेंगे जिस का इंतजाम हमें मिल कर करना है।"

मल्होत्रा जी ने पूछा, "विवेक, देवेंद्र जी के ऑपरेशन का खर्चा भला हम क्यों उठाएंगे?"

जवाब में विवेक बोला, "दोस्तों बुजुर्ग क्लब इस सिद्धांत पर बना था कि 'वक्त पड़ने पर एक बुजुर्ग दूसरे बुजुर्ग की जरूर मदद करेगा।' तो अब इस बात को सिद्ध करने का सही वक्त है। हमें ये साबित करना है कि हमने यह नारा किसी नेता के वादे की तरह नहीं किया है, बल्कि हम अपने बुजुर्ग क्लब के बुनियादी सिद्धांत पर अमल भी करते हैं। इसलिए मैं आप सब से प्रार्थना करता हूं कि बुजुर्ग क्लब का हर सदस्य अपने सामर्थ्य अनुसार देवेंद्र जी के ऑपरेशन के लिए ज्यादा से ज्यादा योगदान दें।"

इतना सुनते ही खन्ना साहब बोले,"अरे भाई विवेक, पैसों का इंतजाम करना तो घरवालों का काम है न कि हमारा।"

इस पर विवेक बोला, "देखिए खन्ना जी, पहले मेरी बात पूरी होने दीजिए। उसके बाद आप जो पूछना चाहें, पूछ सकते हैं। दोस्तों आप सब को पता ही होगा कि हमारा बुजुर्ग क्लब बुजुर्गों का, बुजुर्गों के द्वारा और बुजुर्गों के लिए बना है तथा इस क्लब को बनाते वक्त हमने यह निश्चय किया था कि इस संगठन के माध्यम से हम बुजुर्गों की हर संभव मदद करेंगे, उनकी तकलीफों को दूर करेंगे।"

विवेक कुछ पल चुप हुआ फिर आगे बोला, "पहले पहल तो मैं सोचता था कि बुजुर्गों की छोटी-छोटी समस्याओं को सुलझाना ही हमारे क्लब का उद्देश्य है। लेकिन आज जब देवेंद्र जी को दिल का दौरा पड़ा है तो मुझे ये समझ आया है कि हमारा क्लब तो अब तक सिर्फ खुद को बहला रहा था कि देखो हम कितना अच्छा काम कर रहे हैं! अभी तक तो हमने बुजुर्गों को आने वाली गंभीर बीमारियों के बारे में कुछ सोचा तक नहीं था, इस पर कुछ करना तो बहुत दूर की बात है। लेकिन जब जागो तभी सवेरा होता है। आज हमें मिलकर कुछ कर के दिखाने का मौका मिला है।"

विवेक फिर कुछ क्षण चुप हुआ और आगे बोला, "मैं अपने दोस्त डॉ. खुराना के साथ सिटी हार्ट केयर के अस्पताल के मालिक से मिलने गया था जिन्होंने अपने ट्रस्ट की तरफ से एक लाख रूपए इस ऑपरेशन में देने का वादा किया है। मैं आप सब से भी प्रार्थना करना चाहता हूं कि इस पुण्य कार्य में आप भी अपनी क्षमता अनुसार योगदान करें। मैं आप से यह अपील करना चाहता हूं कि ..... "

तभी खन्ना जी ने फिर पूछ लिया, "लेकिन ऑपरेशन पर तो 30 लाख का खर्चा आना है तो इसमें एक लाख रुपए कम होने से क्या होगा ? मैं आप सब से पूछता हूं कि क्या अब हम अपना घर खाली करके समाज सेवा करेंगे? अगर हम आज किसी अनजान के लिए अपनी जमा-पूंजी लुटा देंगे तो कल जब हमें जरूरत पड़ेगी तब हम क्या करेंगे ?

इस पर विवेक ने जवाब दिया, "देखिए खन्ना जी, देवेंद्र कोई अनजान नहीं है। वे हमारे बुजुर्ग क्लब के सदस्य हैं। लेकिन अगर उनकी जगह क्लब का कोई और सदस्य होता या फिर कोई अनजान भी हमारे बुजुर्ग क्लब से मदद मांगने आता तो तब भी मैं यथासंभव उसकी मदद करने की कोशिश करता। आखिर इसीलिए तो बुजुर्ग क्लब को बनाया गया था। मैं आप सब से निवेदन करना चाहता हूं कि अगर हम सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं तो हमें 30 लाख रुपए की रकम बहुत बड़ी लगेगी। लेकिन अगर हम सब मिलकर यह खर्च उठाते हैं तो हर एक के हिस्से बहुत मामूली रकम ही आएगी। इससे किसी पर भी ऐसा बोझ नहीं पड़ेगा कि उसकी आर्थिक स्थिति ही डगमगा जाए। इसलिए मैं आप सबसे निवेदन करता हूं कि इस पुण्य कार्य के लिए आप से जो बन पड़े, उतना सहयोग करें।"

सिंघानिया जी ने पूछा, "अरे जनाब विवेक साहब, आप कितना योगदान कर रहे हो ?"

विवेक गंभीर होकर बोला, "हां क्लब का प्रेजिडेंट होने के नाते शुरुआत तो मुझसे ही होना चाहिए। मैंने आज अपनी सारी पेंशन की रकम, सावधि जमा आदि तुड़वा कर 12 लाख रुपए जोड़े हैं। लेकिन ऑपरेशन के लिए अभी 18 रुपए और चाहिए। "

इस पर मल्होत्रा साहब बोले, "विवेक, कहीं तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया ?क्या तुम अपनी पूरी जमा-पूंजी लुटा दोगे, वह भी एक 70 साल के आदमी के लिए ? और कितने दिन जी लेगा वह माली?

विवेक बहुत गुस्से में बोला, "मल्होत्रा जी आप मुझे जो चाहे कह लीजिए लेकिन मैं देवेंद्र जी के लिए एक शब्द भी नहीं सुनूंगा। जो उन्हें नहीं जानते हैं उनके लिए वह सिर्फ एक माली हैं। लेकिन मुझे पता है कि उनके जीवन का क्या मूल्य है। और जो आप कह रहे हैं कि 70 साल का व्यक्ति और कितना जी लेगा तो मैं आप से पूछता हूं कि क्या मौत उम्र देखकर आती है ? और अगर भगवान न करे कल को आप पर या मुझ पर ऐसी विपत्ति आती है तो हमारे परिवार वाले भी क्या ऐसा ही सोचेंगे?"

इस पर मल्होत्रा जी गुस्से में बोले, "लेकिन वह माली मेरे परिवार का सदस्य नहीं है।"

विवेक ने जवाब दिया, "चलो फिर तो क्लब बनाने का औचित्य ही खत्म हो गया।  मैं तो इस क्लब को एक परिवार ही मानता हूं लेकिन आज मुझे पता चल गया कि मेरी सोच कितनी गलत थी। मैं इसी वक्त इस क्लब के प्रेजिडेंट पद से इस्तीफा देता हूं। "

थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया। विवेक ने सब से आज्ञा लेनी चाही। मगर तभी मल्होत्रा जी बोले, "मुझे माफ कर दो विवेक। मुझे अब तक तुम्हारी बात समझ नहीं आ रही थी। "

लेकिन खन्ना जी ने बात को आगे खींचने की कोशिश की, "विवेक जी, एक बात तो बताइए, आपके परिवारवालों ने आपको अपनी सारी जमा-पूंजी लुटाने की इजाजत दे दी?"

विवेक बोला, "मेरा बेटा और बहू दोनों अच्छा कमाते हैं। मैंने उनसे बात कर ली है। और आप बिल्कुल सही हैं खन्ना जी, पहले वह भी मेरी बात नहीं समझ पा रहे थे।" लेकिन बाद में मेरे बेटे ने मुझसे कहा कि, "बाबूजी आपने ही मुझे पाल-पोस कर बड़ा किया है। मुझे पता है कि आप कभी भी कोई गलत फैसला नहीं ले सकते। आपने जो निर्णय लिया है, उसमें हम पूरी तरह आपके साथ हैं।"

इसके बाद किसी के पास भी पूछने के लिए कोई सवाल नहीं बचा था।

मल्होत्रा जी बोले, "ठीक है विवेक, बताओ हमें क्या करना है? लेकिन अगर हमें ठीक लगा तो ही हम तुम्हारी बात पर अमल करेंगे।

विवेक सहमति जताते हुए बोला, "ठीक है। मैं आप से सिर्फ दो प्रार्थना करना चाहता हूं। पहली तो यह कि आप सब अपनी क्षमता अनुसार ऑप्रेशन के लिए जितना भी योगदान दे सकते हैं, उतना कीजिए। दूसरी प्रार्थना यह है कि आप सभी को कल शाम साढ़े सात बजे तक एक मुहीम चलानी है जिसमें कि आपको अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और परिचितों से क्लब द्वारा कराए जा रहे ऑपरेशन के लिए यथा सामर्थ्य दान इकट्ठा करना है। एक बात का जरूर ध्यान रखें कि जो भी इस पुण्य कार्य में अपना योगदान दे, उन्हें रशीद जरूर दें।"

अध्याय 13 - "ऑपरेशन के लिए पैसे इकट्ठा करने की मुहीम"


 सभी सदस्यों ने अपने दोस्तों, परिचितों और रिश्तेदारों से मिलकर ऑपरेशन के लिए  पैसे इकट्ठा किए। मैंने  भी अपनी तरफ से दस हजार रुपए दिए थे, मगर आज मैं ईमानदारी से कहना चाहता हूं कि मैं चाहता तो 50 हजार तक का योगदान दे सकता था मगर मुझे उस समय यह सब पैसे बर्बाद करने वाली बात लगी थी। यही तो फर्क था मुझमें और विवेक में!

खैर, सभी दान राशि मिलाकर करीब 3.30 लाख रुपए हो गए। विवेक बोला,"इतने कम समय मैं आप सब ने 3 लाख से ज्यादा रकम जुटाई है, इसलिए आप सब का मैं तहे दिल से धन्यवाद करता हूं। "

विवेक ने भी अपने हर दोस्त और रिस्तेदार के पास जाकर और 1 लाख रुपए जुटा लिए थे। लेकिन अब भी ऑपरेशन के लिए करीब 13. 70 लाख रुपए कम थे। हम सब चाय पीते हुए विचार-विमर्श कर रहे थे। तभी मल्होत्रा जी बोले क्यों न हम अपने विधायक जीवन सेठ जी से मिल कर देखें। वह काफी सज्जन व्यक्ति हैं। उन्होंने पहले  भी हमारी मदद की है। मुझे यकीन है कि इस बार वे हमारी मदद जरूर करेंगे।

विवेक बोला, "वाह मल्होत्रा जी, विचार तो बहुत अच्छा है। अगर हम अभी निकल लें तो इस वक्त वे अपने घर पर ही मिल जाएंगे।"

इसके बाद हम विधायक जीवन सेठ से मिलने गए। जीवन सेठ ने हमारी पूरी बात सुनी। पहले तो वे हैरान रह गए और कहने लगे कि "इस तरह आप कितने लोगों की मदद कर पाएंगे?"

मगर जब विवेक ने कहा कि, "देवेंद्र जी क्लब के सदस्य हैं इसलिए हमें उनके ऑपरेशन के लिए हर कोशिश करनी है।"

तब जीवन सेठ ने कहा कि, "मैं अपनी ओर से आपको 20 हजार रुपए ही दे सकता हूं क्योंकि विधायक फंड के सारे पैसे जनहित कार्यों में लगे हुए हैं।"

विवेक बोला, "सर, आप  इतना योगदान कर रहे हैं, इसके लिए हम आपके बहुत आभारी हैं।"

विवेक ने वहां से निकल कर सब से कहा, "दोस्तों, हमने काफी रुपए इकट्ठा कर लिए हैं मगर अब भी ऑपरेशन के लिए करीब 13.50 लाख रुपए कम हैं। मगर मुझे उम्मीद है कि हम बाकी के पैसे भी इकट्ठा कर लेंगे। मैं आप सब से निवेदन करता हूं कि आप अब भी और पैसे जुटाने की कोशिश जारी रखिए।"

उसके बाद विवेक मुझे साथ लेकर अस्पताल चल दिया। उसने 16.50 लाख रुपए जमा कराए तथा डॉक्टर दलबीर से मिलकर ऑपरेशन का समय निश्चित करने की प्रार्थना की। डॉक्टर ने पूछा कि, "क्या आपने ऑपरेशन के पैसे जमा करा दिए हैं।" जिस पर विवेक ने जवाब दिया कि "अभी तक 16.50 लाख रुपए जमा करा दिए हैं, बाकी की रकम भी कल तक जमा हो जाएगी।" इस पर डॉक्टर दलबीर बोले, "विवेक जी, क्योंकि Patient की  हालत गंभीर है, इसलिए ऑपरेशन कल ही होना जरूरी है। अगर आप कल सुबह 11 बजे तक बाकी पैसे जमा करा देते हैं तो हम दोपहर दो बजे ऑपरेशन शुरू कर देंगे।"

जैसे ही हम अस्पताल से बाहर निकले, मैंने विवेक से पूछा, "विवेक तुमने तो डॉक्टर साहब को ऑपरेशन की तैयारी शुरू करने के लिए  भी कह दिया मगर  बाकी पैसों का इंतजाम कैसे होगा?"

विवेक भी इस बात से बहुत परेशान लग रहा था। पर वह बोला, "अभी तो घर चलते हैं। जहां इतने पैसे हमने जमा कर लिए हैं तो बाकी का भी कुछ न कुछ इंतजाम हो जाएगा। एक-आध घंटे में दोबारा मिलकर इस बारे में सोचेंगे। "

बाद में मुझे पता चला कि विवेक घर गया और उसने अपने बेटे और बहू से अपनी कार बेचने की इजाजत मांगी। इस पर वे दोनों बहुत नाराज हो गए। मनीष बोला, "बाबू जी, आप पहले ही एक अनजान व्यक्ति के ऑपरेशन के लिए पेंशन और सावधि जमा तुड़वा चुके हो और अब आप कार बेचने की बात कर रहे हो। आपको नहीं लगता कि थोड़ा ज्यादा हो गया है। किसी की मदद के लिए आप पूरा घर लुटा देंगे।" देवयानी ने भी मनीष की बातों से सहमति जताई और बोली, "बाबू जी ये आप ठीक नहीं कर रहे हैं।"

विवेक भी नाराज होकर मनीष और देवयानी से बोला, "बच्चों इसी कारण से मैंने हर जगह से पैसों की मदद मांगी मगर तुम दोनों से कुछ नहीं मांगा है। मुझे पता था कि तुम दोनों की यही प्रतिक्रिया होगी। इसी वजह से मैंने अपने कमाए हुए पैसों को ही ऑपरेशन के लिए दिया है। "

इस पर मनीष बोला, "यह घर भी तो आप का ही है। इसे भी बेच कर सारे पैसे दान क्यों नहीं दे देते।"

विवेक ने गम्भीरतापूर्वक जवाब दिया, "मैंने तीन साल पहले ही ये घर तुम्हारे और देवयानी के नाम करने की वसीयत लिख दी थी। और मैं कभी भी ऐसा नहीं चाहूंगा कि मेरे किसी भी निर्णय से तुम दोनों को किसी भी तरह की कोई परेशानी आए। हां सावधि जमा, पेंशन, कार आदि भी मेरे जाने के बाद तुम्हें ही मिलते मगर अभी मैं जिन्दा हूं और मुझे इन पैसों की जरूरत आन पड़ी है। मैं बस इतना चाहता था कि जो कुछ भी मैं कर रहा हूं, वह तुम दोनों की जानकारी में जरूर हो।"

मनीष फिर कुछ बोलने लगा मगर विवेक ने उसे बीच में ही टोक दिया और बोला कि, "बच्चों मुझे पता है कि बहुत से लोग मुझे पीठ पीछे पागल कह रहे हैं लेकिन मुझे इस की परवाह नहीं है। मुझे जीने की एक वजह मिली है। हो सकता है देवेंद्र जी के ऑपरेशन के लिए अपनी सारी जमा-पूंजी लुटा देना बेवकूफी हो, ये भी हो सकता है कि बुरे वक्त में मेरी मदद के लिए कोई भी न आए, लेकिन ये मेरी अंतरात्मा की आवाज है इसलिए मुझे देवेंद्र जी की जान बचाने के लिए अपना सारा धन लुटाकर भिखारी बनना भी मंजूर है। तुम दोनों मेरी इस भावना को नहीं समझ सकते। यह तुम्हारी स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। आज के भौतिकवादी युग में इंसान ने पैसों को इतना महत्वपूर्ण बना दिया है कि सबने पैसों को ही जीवन का एकमात्र ध्येय मान लिया है। इसलिए तुम दोनों का भी इस तरह से सोचना कुछ गलत नहीं है। परन्तु चिंता मत करो, मैं तुम दोनों पर बोझ नहीं बनूंगा। मैं जल्द ही कोई न कोई नौकरी ढूंढ लूंगा।"

इस पर मनीष की आंखों में आंसू आ गए। वह बोला, "बाबू जी आप ऐसा कैसे कह सकते हो। यह घर भी आपका है और मेरा सब कुछ भी आपका है। मैं तो सिर्फ एक छोटा सा सवाल पूछ रहा था। आप को पसंद नहीं आया तो ठीक है। लेकिन आपको ऐसा कहने का कोई हक नहीं है कि आप हमारे लिए बोझ हो और आप नौकरी करोगे। आप मेरे बाबू जी हैं और आज मैं जो कुछ भी हूं, आपके आशीर्वाद से ही हूं। आपको 13.50 लाख रुपए की जरूरत है न; तो ठीक है। अब आप अपनी कार बेचने की बात नहीं करेंगे। मैं कल ग्यारह बजे तक पैसों का इंतजाम कर दूंगा। "

देवयानी भी बोली, "हां बाबूजी, सब कुछ आप ही का तो है। इसलिए दोबारा कभी कुछ ऐसा मत बोलिएगा जिससे कि हम खुद को ही दोषी समझने लग जाएं। "

विवेक भावुक होकर देवयानी से बोला, "मेरे बच्चों मुझे माफ कर दो। मैं तो बहुत खुशकिस्मत हूं कि मेरा मनीष जैसा बेटा और तेरी जैसी बहू है। "

मनीष और देवयानी ने अपनी जमा पूंजी को जोड़कर एवं कंपनी से पैसे लोन लेकर 13.50 लाख रुपए इकट्ठे किए और विवेक को दे दिए मगर उन्होंने विवेक को ये पता नहीं लगने दिया कि उन्हें पैसों के लिए लोन भी लेना पड़ा है।" विवेक ने भी मनीष और देवयानी को बिना बताए अस्पताल के बाकी खर्चों के लिए अपने बचपन के दोस्त डॉ. खुराना से पैसे उधार ले लिए।

अध्याय 14 - "एक माली की जान अनमोल है"


अब ऑपरेशन के लिए पैसे पूरे हो गए थे। विवेक और मैंने  सिटी हार्ट केयर अस्पताल जाकर पैसे जमा कराए। ऑपरेशन कामयाब रहा। डॉ. दलबीर ने विवेक को बताया कि देवेंद्र जी को 10 दिन बाद अस्पताल से डिस्चार्ज किया जाएगा। 

देवेंद्र चतुर्वेदी को जब होश आया तो उनके सामने उनकी बहू, विवेक और मैं थे। उनकी बहू ने खुशी से उनका हाथ पकड़ लिया और "बाबू जी अब आप बिल्कुल ठीक हैं" कहकर रोने लगी। विवेक के भी आंखों में खुशी के आंसू आ गए।

एक-दो दिन बीत जाने के बाद देवेंद्र जी जब हालात समझने लायक हो गए तो उनकी बहू ने उन्हें सारी बात बता दी कि कैसे विवेक ने उनके लिए रात-दिन एक करके ऑपरेशन के लिए पैसों का इंतजाम किया और उनका ऑपरेशन कराया। देवेंद्र सारी बात जान कर रोने लग गया और उसने बहू को कहकर विवेक को फोन करके बुलवाया।

विवेक मेरे घर आया और हम दोनों साथ ही अस्पताल गए। वहां देवेंद्र जी रो रहे थे। विवेक को देखते ही देवेंद्र जी ने उससे पूछा, "विवेक तुमने ऐसा क्यों किया? किसलिए? आखिर मैं कितने दिन और जी लूंगा, जो तुमने मुझ पर ऐसा कर्ज चढ़ा दिया ?मैं इस बोझ को कैसे उतारूंगा ? इस बोझ के कारण अब मैं चैन से मर भी नहीं सकूंगा। "

विवेक थोड़ी देर खामोश रहा फिर गंभीर होकर बोला, "क्यों दादा भाई, आप तो बहुत स्वार्थी निकले। दुनिया भर का ज्ञान समेट कर भाग रहे थे। अरे, अभी तो आप को अपना ज्ञान पूरी दुनिया के साथ बांटना है। "

देवेंद्र बिस्तर पर लेटे हुए विवेक की बात सुन रहा था। उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था। विवेक आगे बोला, "मैंने आपकी बहू लक्ष्मी से बात की थी। उससे पूछा था कि एक माली जो हर वक्त फूलों के साथ वक्त बिताता है, उन्हें दिल का दौरा कैसे पड़ सकता है? आखिर ऐसा कौन सा गम सता रहा है दादा भाई को? तब लक्ष्मी ने मुझे बताया कि आप अपने पोते अतुल के गम में अंदर ही अंदर घुले जा रहे थे। एक ऐसा बेटा जो अपने दादा को ऑपरेशन के वक्त भी मिलने नहीं आया। ऐसा पोता, जिसे अपने दादा और अपनी मां की कोई परवाह नहीं, जो कई-कई दिन घर नहीं आता और आवारा दोस्तों के साथ रहता है। दादा भाई मैं आप से पूछता हूं कि आप अपने नालायक पोते के लिए अपनी लक्ष्मी बेटी को कैसे भूल गए।  आप यह नहीं देख रहे कि वह कैसे जी रही है ? ऐसे में अगर आपको कुछ हो जाता तो उसका क्या होता ? मैं आपसे पूछता हूं कि बाग में अगर एक फूल खराब जाए तो क्या पूरा बाग उजड़ जाता है? एक माली तो पूरी दुनिया में अपने फूलों की खुशबू बांटता है। तो आप अपना यह कर्तव्य कैसे भूल गए कि जो ज्ञान आपने इतने सालों की मेहनत से इकट्ठा किया है उसे लोगों में बांटना है। "

देवेंद्र बोला, "मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। "

विवेक बोला, "दादा भाई पहले आप ठीक हो जाइए। उसके बाद आप फूलों, पेड़-पौधों और उनके उपयोग की बातें, जो आप मुझे बताया करते थे, के ऊपर एक किताब लिखिए।  छपवाने की जिम्मेदारी मेरी। "

देवेंद्र बोला, "पर ऐसी किताब को पढ़ेगा कौन?"

विवेक बोला, "ऐसी किताब को बहुत लोग पढ़ना चाहेंगे। अब मुझे ही ले लो, मैं रोज सुबह-शाम नियमित पौधों को पानी देता हूं। कभी-कभी उनसे बातें भी करता हूं। अगर मुझे पता हो कि किस पौधे का क्या नाम है, उसके क्या गुण हैं ,कब फूल खिलते हैं, क्या दवा बन सकती है या उनका किस प्रकार से ख्याल रखना है तो यह बातें मेरे लिए कितनी उपयोगी होगी। होगी कि नहीं ? कितनी बार माली आकर हमें ठग लेता है। किताब होगी तो मैं तो अपने घर में आयुर्वेदिक गुणों वाले पौधों को लगाऊंगा। "

मैं भी बोल उठा , "भाई विवेक बात तो बिल्कुल सही है। सचमुच देवेंद्र भाई सुनकर मुझे भी लग रहा है कि ऐसे पौधों के बारे में मुझे जानकारी हो तो मजा ही आ जाए। "

देवेंद्र बोला, "मगर ऐसी किताबें तो पहले से ही बाजार में उपलब्ध होंगी ?

विवेक बोला, "हां, ये बात सही है कि बाजार में ऐसी किताबें मिलती हैं। उनमें से मैंने भी एक दो पढ़ने की कोशिश की थी। मगर उसमें जो जानकारी दी गई होती है, उसमें ऐसे वैज्ञानिक शब्दों का इस्तेमाल होता है जो मेरी समझ से बाहर होती है। दूसरी बात इस विषय की किताबें अधिकतर अंग्रेजी में होती हैं। हिंदी में इस तरह की किताबें बहुत कम हैं तथा उनमें भी अधिकतर आयुर्वेदिक किस्मों के बारे में होती है। मगर उनमें भी भाषा बहुत गूढ़ होती है। मगर आप जिस तरह से किसी पौधे की जानकारी देते हो, वह बोल चाल की आसान भाषा होती है, जिस कारण मुझे आसानी से समझ आ जाता है। इसलिए मुझे लगता है कि आपकी लिखी किताब भी मेरी तरह आम लोगों के लिए बहुत फायदेमंद होगी। "

देवेंद्र कुछ खो गया और कुछ देर बाद बोला, "मैं इस पर जरूर सोचूंगा।"

विवेक बोला, "ठीक है दादा भाई, अभी आप आराम कीजिए। आपको अब जल्दी से ठीक होकर बहुत काम करना है। अभी हम चलते हैं। कल आप से फिर मिलने आएंगे।"

जब हम निकल रहे थे तो मैंने देवेंद्र जी की आंखों में अजीब सी चमक देखी थी। मानो उन्हें जीने का एक मकसद मिल गया हो। मैंने विवेक से तो नहीं कहा लेकिन मुझे पहली बार एहसास हुआ कि बुढ़ापे में जब लोग रिटायर होकर या अन्य कारणों से बेमकसद हो जाते हैं या जब उन्हें लगने लगता है कि उनकी कोई एहमियत या जरूरत नहीं है तो शायद यही उनकी सबसे बड़ी बीमारी बन जाती है। ऐसे में उनके पास कोई सार्थक लक्ष्य हो तो उन्हें शारीरिक तकलीफों से भी लड़ने की ताकत मिल जाती है।"

अध्याय 15 - "अवांछित अजनबी"


मैं विवेक के घर पर चाय पीते हुए विचार-विमर्श कर रहा था। मैंने विवेक को कहा कि, "देवेंद्र जी की सफल ऑपरेशन की खुशखबरी मैंने बुजुर्ग क्लब के सभी सदस्यों को कल ही दे दी थी।" विवेक कुछ बोलने लगा कि तभी दरवाजे की घंटी बजी। देवयानी दरवाजा खोलने गई और उसने अंदर आ कर बताया, "बाबू जी, बाहर एक युवक आप के बारे में पूछ रहा है। कहता है कि आपसे जरूरी मिलना है। विवेक बोला, "कौन हो सकता है? ऐसा कर देवयानी, उसे अंदर बुला ले।"

वह युवक अंदर आया। विवेक ने जैसे ही उसका चेहरा देखा तो वह तुरंत उठ खड़ा हुआ और हैरानी और गुस्से में बोला, "तुम तो वही हो न जो लड़कियों से बद्तमीजी करते थे और मुझे भी परेशान करने लग गए थे ? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां आने की ?"

वह लड़का पहले भौंचक्का रह गया, फिर डर गया लेकिन दृढ़ स्वर में बोला, "जी, मैं वही हूं। अब तो मैं आपसे माफी मांगने के लायक भी नहीं रहा। मैं तो यहां आपको धन्यवाद करने आया था कि आपने मेरे दादा देवेंद्र चतुर्वेदी जी का ऑपरेशन करवाया है। हो सके तो मुझे माफ कर दीजिए।" इतना कहकर वह जाने लगा।

विवेक चौंक कर बोला, "तुम देवेंद्र जी के पोते हो? क्या नाम है तुम्हारा?"

युवक बोला, "अतुल .....अतुल चतुर्वेदी।"

विवेक ने कहा, " अतुल चतुर्वेदी, हम्म। इधर आकर बैठो। मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूं।"

विवेक ने उससे पूछा, " तुम देवेंद्र जी से अस्पताल में मिलने क्यों नहीं आए?"

अतुल कुछ क्षण चुप रहा, फिर उसने बताया कि, "ऐसे समय में जब मुझे दादा जी के पास अस्पताल में होना चाहिए था तब मैं अपने दोस्तों के साथ गोवा में घूम रहा था। मुझे तो घर आकर मां से पता चला कि दादा जी को हार्ट अटैक आया था और कैसे उनका ऑपरेशन हुआ है।" इतना कहकर वह रोने लगा।

विवेक कुछ देर खामोश रहा। फिर गंभीर स्वर में बोला, "क्या तुम जानते हो तुम्हारे दादा जी कितने भले इंसान हैं। जब उन्हें दिल का दौरा पड़ने की खबर मुझे मिली थी तो मैं बहुत हैरान था कि इतने अच्छे इंसान को ऐसा कौन सा गम खाए जा रहा है कि उन्हें दिल का दौरा पड़ गया, लेकिन तुम्हें देख कर मुझे सब समझ आ गया है। उन्हें तो हार्ट अटैक आना  ही था। बताओ क्यों किया तुमने ऐसा?"

अतुल सिसकी लेते हुए बोला, "मुझे अपने पिता जी की शक्ल भी याद नहीं है। जब मैं बहुत छोटा था तभी मेरे पिता जी का देहांत हो गया था। मेरे दादा जी ने ही मुझे बड़े लाड़-प्यार के साथ मुझे पाला है। मुझे एहसास है कि मैंने उनके साथ बहुत गलत किया है। आप सही बोल रहे हैं। मैं ही अपने दादा जी के हार्ट अटैक का जिम्मेदार हूं। इतना कहकर वह जाने लगा।"

विवेक ने उसे फिर रोका, "रुको अतुल। दो मिनट के लिए बैठो।" उसके बाद विवेक ने देवयानी से पानी मंगाया और अतुल से पानी पीने के लिए कहा।

विवेक कुछ देर चुप रहा, फिर उसने अतुल से पूछा, "क्या तुम्हें सचमुच अपने किए पर पछतावा हो रहा है?"

अतुल बोला, "हां, मुझे अपनी गलतियों का एहसास है। "

विवेक ने पूछा, "तो तुम किस तरह अपनी गलती सुधरोगे ?"

अतुल बोला, "मैं मन लगाकर अपनी पढ़ाई पूरी करूंगा और अच्छे नंबर लाऊंगा और नौकरी करूंगा। गलत दोस्तों से अब कभी नहीं मिलूंगा और दादा जी की बहुत सेवा करूंगा। उन्हें अब कभी भी मुझे लेकर कोई दुःख नहीं पहुंचेगा। "

विवेक बोला, "अतुल तुम जानते हो कि इस वक्त तुम्हारे दादा जी को क्या गम सता रहा है? देवेंद्र जी को जब ऑपरेशन के बाद होश आया और उन्हें ऑपरेशन पर हुए खर्च का पता चला तो उन्होंने मुझे बुलाया और कहा था कि इस कर्ज के बोझ के साथ वह न तो चैन से जी सकेंगे और न ही चैन से मर सकेंगे। मैं तुमसे पूछता हूं कि क्या तुम 30 लाख रुपए के कर्ज को उतरोगे। "

अतुल पहले तो घबराया और बड़बड़ाया, "मैं इतनी बड़ी रकम को कैसे उतार पाऊंगा। " फिर एक क्षण चुप होकर दृढ़ स्वर में बोला, "मैं पढ़ाई के बाद नौकरी करके पूरी जिंदगी इस कर्ज को उतरूंगा। नहीं, मैं अभी से ही नौकरी खोजता हूं। हां, यही सही रहेगा।" अतुल को फिर सही स्थिति समझ आई और बोला, "लेकिन अभी तो मेरे पास पैसे नहीं है। "

विवेक बोला, "अतुल हमने जब इस ऑपरेशन के लिए पैसे इकट्ठा किए थे तो हम में से किसी ने भी ऐसा नहीं सोचा था कि हमें हमारे पैसे वापस मिलेंगे। लेकिन तुम्हारे दादा जी की भावनाओं का ख्याल रखते हुए मुझे लगता है कि तुम्हें यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए। मैं तुम्हें एक तरीका बता सकता हूं जिससे तुम इस कर्ज को धीरे-धीरे उतार  सकते हो। पर पता नहीं तुम इसे करने की हिम्मत दिखा पाओगे कि नहीं ?"

अतुल बोला, "अंकल जी, मैं दादा जी की इच्छा के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हूं। आप बताइए, मुझे क्या करना होगा? "

विवेक बोला, "देखो अतुल जो रास्ता मैं बताऊंगा वह रास्ता लम्बा भी होगा और कठिन भी, कहीं बीच में ही कमजोर तो नहीं पड़ जाओगे ?"

अतुल दृढ़ स्वर में बोला, "चाहे मेरी जान भी चली जाए, तब भी मैं पीछे नहीं हटूंगा। आप मुझे बताइए कि मैं कैसे अपने दादा जी का कर्जा उतार सकता हूं ?"

विवेक बोला, "तुम्हें यह तो पता ही होगा कि तुम्हारे दादा जी पेड़-पौधों से बहुत प्यार करते हैं और उनके बारे में बहुत जानकारी रखते हैं। "

अतुल बोला, "हां, मेरे दादा जी को पेड़-पौधों से बहुत लगाव है। "

विवेक ने अतुल से पूछा, "क्या तुम अपने दादा जी की खुशी के लिए माली का काम कर सकोगे?"

अतुल बोला, "मैं कुछ समझा नहीं?"

विवेक ने फिर पूछा, "पहले मेरे प्रश्न का जवाब दो कि क्या तुम अपने दादा जी की तरह एक माली का काम कर सकोगे? क्या इस छोटे काम को करते हुए तुम्हें शर्म तो नहीं महसूस होगी?"

अतुल एक क्षण चुप रहा, फिर बोला,  "हां, मैं माली का काम कर लूंगा। जैसा आप कहेंगे, वैसा करूंगा।"

विवेक बोला, "तो ठीक है। तुम्हें अपने दादा जी की तरह माली का काम करना होगा। बस फर्क यह होगा कि उन्होंने यह काम शौकिया तौर पर समाज सेवा के रूप में किया है जबकि तुम पैसों के लिए यह काम करोगे यानि कि व्यापार की तरह। तुम्हें पार्ट-टाइम नर्सरी प्लांट चलानी होगी। किराए पर जगह मैं तुम्हें दिलवा दूंगा। हर सुबह तुम्हें घर-घर जाकर पौधों को बेचना होगा। किस दाम पर कौन से पौधे बिकते हैं यह तुम्हारे दादा जी के माली दोस्तों की मदद से पता चल जाएगा। फूल-पौधों के लिए तो तुम्हारे दादा जी से बढ़कर कोई गुरु नहीं हो सकता है। उनसे हर पौधे की जानकारी लो, उसे लिखो। किस पौधे का क्या गुण है? फूल कब खिलते हैं ? किस पौधे को ज्यादा धुप चाहिए, किसे कम ? कौन से पौधों को विशेष रख-रखाव की जरूरत पड़ती है ? किन पौधों से औषधि बनती है ? किन्हें घर के अंदर भी रख सकते हैं? कौन से पौधों के पत्ते और फूल भगवान की पूजा में काम आते हैं? सबकुछ लिखो। जिस घर में पौधे लगाओ, उन्हें उन पौधों के नाम और उनकी खूबी, कागज में सुन्दर तरीके से लिख कर दो। यहां तक कि उन्हें घर में आसानी से उगाए जा सकने वाली सब्जियां लगा कर भी दो। मुझे यकीन है कि इस तरह की सेवा देने से तुम्हारा काम अच्छा चल निकलेगा और घर-घर में तुम्हारे पौधे बिकने लगेंगे। इसके अलावा होटलों और सजावट की दुकानों को भी फूल-पौधे सप्लाई करो। देखना तुम्हारा काम बहुत अच्छा चल निकलेगा।"

अतुल बहुत उत्साह से बोला,"मैंने इस तरह से तो कभी सोचा ही नहीं था। मेरे दादा जी को तो फूल-पौधों और उनके गुणों की बहुत ज्यादा जानकारी है। मुझे तो आज तक उनका काम बेकार लगता था, लेकिन आपकी बातों से मुझे लगने लगा है कि यह काम तो बहुत अच्छा है। लोग पौधे तो लगवा लेते हैं लेकिन ज्यादातर उन्हें उन पौधों के नाम अथवा खिलने वाले फूलों के अलावा और कोई जानकारी नहीं होती है। अगर उन्हें उन पौधों की खूबियों का पता हो तो उन्हें बहुत ज्यादा खुशी मिलेगी। पूजा-पाठ में जिन पौधों के फूल-पत्तों आदि का उपयोग होता है, उन्हें कौन अपने घर नहीं लगवाना चाहेगा। आयुर्वेदिक पौधे भी हर कोई लगाना पसंद करेंगे। आप ने जिस तरह से मुझे यह व्यापार समझाया है, उससे तो मुझे खुद भी लगने लगा है कि मैं यह काम बहुत अच्छी तरह से कर सकता हूं। "

वह विवेक के पैर छू कर बोला, "सर मैं आप को वादा करता हूं कि मैं इस काम को बहुत लगन से करूंगा और धीरे-धीरे सबका कर्ज उतरूंगा। " यह कहकर वह चला गया।

अतुल के जाने के बाद मैंने विवेक से कहा, "यार, विवेक क्या कमाल का आइडिया दिया है तुमने। भई वाह, मजा आ गया। दादा जी को फूल-पौधों पर किताब लिखने के लिए लगा दिया और पोते को फूल-पौधों का व्यापार करने के लिए लगा दिया! पर मैं एक बात पूछना चाहता था कि क्या यह अतुल पर ज्यादती नहीं है ? उस पर कर्ज का बोझ लादना और माली का काम करवाना। इससे अच्छा तो कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके कोई अच्छी नौकरी करता ?"

विवेक गम्भीरतापूर्वक बोला, "पता नहीं विजय, मैं ठीक कर रहा हूं या नहीं। पर मुझे लगा कि अतुल को अब घर का बोझ उठाना चाहिए।"

विवेक कुछ क्षण चुप रहकर बोला, "अभी तक तो देवेंद्र जी ही जैसे-तैसे घर का सारा खर्च उठा रहे थे। मगर हार्ट ट्रांसप्लांट के बाद तो उन्हें सिर्फ आराम और देख-भाल की आवश्यकता है। ऐसे में अतुल को ही घर की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। इसके अलावा मुझे लगा कि इस वक्त तो अतुल देवेंद्र जी के ऑपरेशन को लेकर भावुक है, इसलिए अपने दादा जी और मां की सेवा करने की बात कर रहा है। मगर थोड़े समय के बाद ऐसा न हो जाए कि वह फिर से उन्हीं आवारा दोस्तों की संगत में दोबारा पड़ जाए। इसलिए मैंने उसे कर्ज उतारने के बहाने माली का काम करने का रास्ता बताया है जिससे कि वह ज्यादा से ज्यादा समय अपने दादा जी के साथ ही बिताए तथा अपने दोस्तों से भी दूर रहे।"

मैंने भी विवेक से कहा कि, "तुम्हारी बातों को सुनकर मुझे भी लग रहा है कि तुमने बिल्कुल सही फैसला किया है। एक तरफ तो अतुल के पास होने से देवेंद्र जी जल्दी स्वस्थ होंगे, दूसरी तरफ अतुल भी अपने दादा जी के साथ जितना वक्त बिताएगा, उतना उसे सिखने को मिलेगा।"

विवेक ने सहमति जताई और बोला, "तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो विवेक। देवेंद्र जी न सिर्फ अध्यापक हैं बल्कि उन्हें पेड़ पौधों का भी अत्यधिक ज्ञान है। अतुल जो कुछ अपने दादा जी से सीखेगा उतना वह किसी भी कॉलेज में नहीं सीख सकता है। अगर ईश्वर ने चाहा और उसके फूल-पौधों और नर्सरी प्लांट का काम चल पड़ा तो देखना वह फिर जिंदगी में कभी गलत रास्ते पर नहीं जाएगा। एक बार वह मेहनत और ईमानदारी से पैसे कमाना सीख लेगा तो वह जिंदगी में कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखेगा। उसे आत्मविश्वास और सम्मान के साथ जीवन जीने का हुनर आ जाएगा।"

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